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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१२५

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सेवासदन
 


उससे अब छिपाना कैसा! हाथ जोड़ कर कहूँगा, सरकार बुरा हूँ तो, भला हूँ तो अब आपका सेवक हूँ। चाहे जो दण्ड दो, सिर तुम्हारे सामने झुका हुआ है। चोरी की, चाहे दगा किया, सब तुम्हारे प्रेम के निमित्त किया अब क्षमा करो।

विषयवासना नीति, ज्ञान और संकोच किसी के रोके नहीं रुकती। नशे में हम सब बेसुध हो जाते है।

वह व्याकुल होकर पाँच ही बजे निकल पड़ा और घूमता हुआ नदी के तटतर आ पहुँचा। शीतल, मन्द वायु उसके तपते हुए शरीर को अत्यन्त सुखद मालूम होती थी और जल की निर्मल श्याम सुवर्ण धारा में रह-रहकर उछलती हुई मछलियां ऐसी मालूम होती थी, मानों किसी सुन्दरी के चञ्चल नयन महीन घूंघट से चमकते हों।

सदन घोड़े से उतरकर करार पर बैठ गया और इस मनोहर दृश्य को देखने में मग्न हो गया। अकस्मात् उसने एक जटाधारी साधु को पेड़ों की आड़ से अपनी तरफ आते देखा। उसके गले में रुद्राक्ष की माला थी और नेत्र लाल थे। ज्ञान और योग को प्रतिभा की जगह उसके मुख से एक प्रकार की सरलता और दया प्रकट होती थी। उसे अपने निकट देखकर सदन ने उठकर उसका सत्कार किया।

साधु ने इस ढंग से उसका हाथ पकड़ लिया, मानो उससे परिचय है और बोला, सदन में कई दिन से तुमसे मिलना चाहता था। तुम्हारे हित की एक बात कहना चाहता हूँ। तुम सुमनबाई के पास जाना छोड़ दो, नहीं तो तुम्हारा सर्वनाश हो जायगा। तुम नहीं जानते वह कौन है? प्रेम के नशे में तुम्हें उसके दूषण नही दिखाई देते। तुम समझते हो कि वह तुमसे प्रेम करती है। किन्तु यह तुम्हारी भूल है। जिसने अपने पति को त्याग दिया, वह दूसरों से क्या प्रेम निभा सकती है? तुम इस समय वहीं जा रहे हो। साधु का वचन मानो, घर लौट जाओ, इसी में तुम्हारा कल्याण है।

यह कहकर वह महात्मा जिधर से आये थे उधर ही चल दिये और