उनसे बातचीत करने की फुरसत कहाँ? वह अपने गहने कपड़े और माँँग चोटी में मग्न थी। कुछ गहने खटाई में पड़े थे, कुछ महरी साफ कर रही थी। पानदान माँजा जा रहा था। पड़ोस की कई स्त्रियाँ बैठी हुई थी। सुभद्रा ने आज खुशी में खाना भी नहीं खाया। पूड़ियाँ बनाकर शर्माजी और सदन के लिये बाहर ही भेज दी।
यहां तक कि एक बज गया। जीतन ने गाड़ी लाकर द्वारपर खड़ी कर दी। सदन ने अपने ट्रंक और बिस्तर आदि रख दिए। उस समय सुभद्रा को शर्माजी की याद आई, महरी से बोली, जरा देख तो कहाँ है, बुला ला। उसने आकर बाहर देखा। कमरे में झांका, नीचे जाकर देखा, शर्माजी का पता न था। सुभद्रा ताड़ गई। बोली, जबतक बह आवेगे, मैं न जाऊँगी। शर्माजी कहीं बाहर न गये थे। ऊपर छतपर जाकर बैठे थे। जब एक बज गया और सुभद्रा न निकली तब बह झुंझलाकर घर में गये और सुभद्रा से बोले, अभी तक तुम यहीं हो? एक बज गया!
सुभद्रा को आँखों में आँँसू भर आये। चलते-चलते शर्माजी की यह रुवाई अखर गई। शर्माजी अपनी निष्ठुरता पर पछताये। सुभद्रा के आँसू पोछे, गले से लगाया और लाकर गाड़ी में बैठा दिया।
स्टेशन पर पहुँचे, गाड़ी छूटने ही वाली थी, सदन दौड़कर गाड़ी में जा बैठा, सुभद्रा बैठने भी न पाई थी कि गाड़ी छूट गई। वह सिटकीपर खड़ी शर्माजीको ताकती रही और जबतक वह आँखो से ओझल न हुए यह खिड़की पर से न हटी।
संध्या समय गाड़ी ठिकानेपर पहुँची। मदनसिंह पालकी और घोड़ा लिए स्टेशन पर मौजूद थे। सदन ने दौड़कर पिता के चरण स्पर्श किए।
ज्यो-ज्यों गाँव निकट आता था, सदन की व्यग्रता बढ़ती जाती थी; जब गाँव आध मील रह गया और धान के खेत की मेडोंपर घोड़ो को दौड़ना कठिन जान पड़ा तो वह उतर पड़ा और बेग के साथ गाँव की तरफ चला। आज उसें अपना गाँव बहुत सुनसान मालूम होता था। सूर्यास्त हो गया था। किसान बैलों को हाँकते, खेतों में चले आते थे। सदन किसी से कुछ न