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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१४९

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सेवासदन
 

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पंण्डित उमानाथ सदन सिंह का फलदान चढ़ा आये हैं। उन्होंने जान्हवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं वह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जान्हवी पर उनके उपदेश का कुछ असर न होता था, उसके सामने वह उसकी हाँ-में-हाँ मिलाने पर मजबूर हो जाते थे।

उन्होंने एक हजार रुपये के दहेज पर विवाह ठीक किया था पर अब इस चिन्ता में पड़े हुए थे कि बरात के लिए खर्च का क्या प्रबन्ध होगा। कम से कम एक हजार रुपये की और जरूरत थी। इसके मिलने का उन्हें कोई उपाय न सूझता था। हाँ, उन्हें इस विचार से हर्ष होता था कि शान्ता का विवाह अच्छे घर में होगा, वह सुख से रहेगी और गंगाजली की आत्मा मेरे इस काम से प्रसन्न होगी।

अन्तमें उन्होने सोचा, अभी विवाह को तीन महीने है। अगर उस समयतक रुपयों का प्रबन्ध हो गया तो भला ही है। नहीं तो बरात का झगड़ा ही तोड़ दूँगा। किसी न किसी बातपर बिगड़ जाऊँगा, बारात वाले आप ही नाराज होकर लौट जायेंगे। यही न होगा कि मेरी थोड़ी सी बदनामी होगी, पर विवाह तो हो जायगा, लड़की तो आराम से रहेगी। मैं यह झगड़ा ऐसी कुशलता से करूंगा कि सारा दोष बारातियों पर आवे।

पंण्डित कृष्णचन्द्र को जेल खाने से छूटकर आये हुए एक सप्ताह बीत गया था, लेकिन अती तक विवाह के सम्बध में उमानाथ को बातचीत करने का अवसर ही न मिला था। वह कृष्णचन्द्र के सम्मुख जाते हुए लजाते थे। कृष्णचन्द्र के स्वभाव में अब एक बड़ा अन्तर दिखाई देता था। उनमें गम्भीरता की जगह एक उद्यण्डता आ गई थी और संकोच नाम को भी न रहा था। उनका शरीर क्षीण हो गया, पर उसमें एक अद्भुत शक्ति भरी हुई मालूम होती थी, वे रात को बारबार दीर्घ निश्वास लेकर हाय! हाय!' कहते सुनाई देते थे। आधी रात को चारों ओर नीरवता छाई हुई