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सेवासदन
 


है। स्वर्ग में पहुँचने के लिए आए कोई सीधा रास्ता नहीं है। वैतरणी का सामना अवश्य करना पड़ेगा। जो लोग समझते है किसी महात्मा के आशीर्वाद से कूद स्वर्ग में जा बैठेंगे वह उनसे अधिक हास्यास्पद है जो समझते है कि चीफ़ से वेश्याओं को निकाल देने से भारत के सब दुःख दर्द मिट जायेंगे और एक नवीन सूर्य का उदय हो जायगा।

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जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारन की आवाज सुनकर जाग जाता है किन्तु इधर-उधर देख कर फिर निंद्रा में मग्न हो जाना है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव्यों को भूल गये। उन्होंने सोचा, मेरे यहाँ रहने से उमानाथ पर कौन-सा बोझ पड़ रहा है। आधा सेर आटा ही तो खाता हूँ या और कुछ। लेकिन उस दिन से उन्होंने नीच आदमियों के साथ बैठकर चरस पीना छोड़ दिया। इतनी-सी बात लिये चारों ओर मारे-मारे फिरना उन्हें अनुपयुक्त मालूम हुआ। अब वे प्रायः बरामदे में ही बैठे रहते और सामने से आनेजाने वाली रमणियों को घूरते। वे प्रत्येक विषय में उमानाथकी हाँ-में-हाँ मिलाते। भोजन करते समय सामने जितना आ जाता था का खा लेते, इच्छा रहनेपर भी कभी कुछ न माँगते। वे उनसे न कितनी ही बाते ठकुरसुहाती के लिये कहने। उनकी आत्मा शिव निर्बल हो गई थी।

उमानाथ सान्ता के विवाह संबंध जब उनसे कुछ कहते तो वह बड़े सरल भाषा से उत्तर देते, भाई तुम चाहो जो करो तुम्हीं इसके मालिक हो। वह अपने मन को समझते, जब रुपये इनके लग रहे है तो सब काम इन्हीं के इच्छानुसार होने चाहिये।

लेकिन उमानाथ अपने में बहनोई की कठोर बातें न भूले छालेपर मक्खन लगाने से एक क्षण के लिये कष्ट कम हो जाता है, किन्तु फिर ताप की वेदना होने लगती हैं। कृष्णचन्द्रकी आत्मग्लानि से भरी हुई बातें उमानाथ को शीघ्र भूल गई और उनके कृतघ्न शब्द कानो में गूंजने लगे। जब वह सोने