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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२०१

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सेवासदन
 


वह अपनी वाणी से कह सकती थी। उसके मन ने कहा, जिसे पतिव्रत जैसा साधन मिल गया है उसे और किसी साधन की क्या आवश्यकता? इसमें सुख, सन्तोष और शान्ति सब कुछ है।

आधी रात बीत चुकी थी। कृष्णचन्द्र घर से बाहर निकले। प्रकृति सुन्दरी किसी वृद्धा के समान कुहरे की मोटी चादर ओढे निद्रामें मग्न थी? आकाश में चन्द्रमा मुँह छिपाये हुए वेग से दौड़ा चला जाता था, मालूम नहीं कहाँ?

कृष्णचन्द्र के मन मे एक तीव्र आकांक्षा उठी, शान्ता को कैसे देखूँ। संसार में यही एक वस्तु उनके आनन्दमय जीवन का चिह्न रह गई थी। नैराश्य के धने अन्धकार में यही एक ज्योति उनको अपने मन की ओर खींच रही थी। वह कुछ देर तक द्वार पर चुपचाप खड़े रहे तब एक लंबी साँस लेकर आगे बढ़े। उन्हें ऐसा मालूम हुआ मानो गंगाजली आकाश में बैठी। हुई उन्हें बुला रही है।

कृष्णचन्द्र के मन में इस समय कोई इच्छा, कोई अभिलाषा, कोई चिन्ता न थी। संसार से उनका मन विरक्त हो गया था। वह चाहते थे कि किसी प्रकार जल्दी गंगातट पर पहुँचूँ और उसके अथाह जल में कूद पड़ूँ। उन्हें भय था कि कहीं मेरा साहस न छूट जाय। उन्होंने अपने संकल्प को उत्तेजित करने के लिये दौड़ना शुरू किया।

लेकिन थोड़ी ही दूर चलकर वह फिर ठिठक गये और सोचने लगे। पानी में कूद पड़ना ऐसा क्या कठिन है, जहाँ भूमि से पैर उखड़े कि काम तमाम हुआ। यह स्मरण करके उनका हृदय एक बार काँप उठा, अकस्मात् यह बात उनके ध्यान में आई कि कहीं निकल क्यों न जाऊँ? जब यहाँ रहूँगा ही नहीं तो अपना अपमान कैसे सुनूँगा? लेकिन इस बात को उन्होंने मन में जमने न दिया। मोह की कपटलीला उन्हें घोखा न दे सकीं। यद्यपि वह धार्मिक प्रकृति के मनुष्य नहीं थे और अदृश्य के एक अव्यक्त भय से उनका हृदय काप रहा था, पर अपने संकल्प को दृढ़ रखने के लिये वह अपने मन को यह विश्वास दिला रहे थे कि परमात्मा बड़ा दयालु और करुणाशील