सेवासदन' | ३४७ |
स्थान पूरा कर दे। वह बीमार पड़े तो उनकी सेवा करे, उनके फोड़े फुन्सियाँ, मलमूत्र देखकर घृणा न करे और अपने व्यवहार से उनमे धार्मिक भावों का ऐसा सचार कर दे कि उसके पिछले कु संस्कार मिट जायँ और उनका जीवन सुख से कटे। वात्सल्य के बिना यह उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। ईश्वर ने तुम्हे ज्ञान और विवेक दिया है, तुम्हारे हृदय में दया है, करुणा है, धर्म है और तुम्ही इस कर्तव्य का भार संभाल सकती हो। मेरी प्रार्थना स्वीकार करोगी?
सुमन की आँखे सजल हो गई। मेरे विषय मे एक ज्ञानी महात्मा का यह विचार है, यह सोचकर उसका चित्त गद्गद हो गया। उसे स्वप्न में भी ऐसी आशा न थी कि उसपर इतना विश्वास किया जायगा और उसे सेवा का ऐसा महान् गौरव प्राप्त होगा। उसे निश्चय हो गया कि परमास्मा ने गजानन्दको यह प्रेरणा की है। अभी थोड़ी देर पहले वह किसी बालक को कीचड़ लपेट देखती तो उसकी ओर से मुंह फेर लेती पर गजानन्द ने उसपर विश्वास करके उस घृणा को जीत लिया, उसमे प्रेम संचार कर दिया था। हम अपने ऊपर विश्वास करनेवालोको कभी निराश नहीं करना चाहते और ऐसे बोझो को उठाने को तैयार हो जाते है जिन्हे हम असाध्य समझते थे। विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है। सुमन ने अत्यंत विनीत भाव से कहा, आप लोग मुझे इस योग्य समझते है, यह मेरा परम सौभाग्य है। मैं किसी के कुछ काम आ सकूँ, किसी की सेवा कर सकूँ, यह मेरी परम लालसा थी। आपके बताये हुए आदर्शपर मै पहुँच न सकूँगी, पर यथाशक्ति मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगी। यह कहते कहते सुमन चुप हो गई। उसका सिर झुक गया और आँखे डबडबा आईं। उसकी वाणी से जो कुछ न हो सका वह उसके मुख के भाव ने प्रकट कर दिया। मानो वह कह रही थी, यह आपकी असीम कृपा है, जो आप मुझपर ऐसा विश्वास करते है। कहाँ मुझ जैसी नीच, दुश्चरित्रा और कहां यह महान पद! पर ईश्वर ने चाहा तो आपको इस विश्वासदान के लिये पछताना न पड़ेगा।