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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/३३

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सेवासदन
 

चोकीदार हकवकाकर पीछे हट गया। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी। बोला, सरकार, क्या यह आपके घर की है?

भद्र पुरुष में क्रोध मे कहा, हमारे घर की हो या न हों, तू इनसे हाथा-पाई क्यों कर रहा था? अभी रिपोर्ट कर दुँ तो नौकरी से हाथ धो बैैठगा।

चोकीदार हाथ पैर जोड़ने लगा। इतने मे गाड़ी में बैठी हुई महिला ने सुमन काे इसारे से बुलाया ओर पूछा, यह तुमसे क्या कह रहा था?

सुमन--कुछ नही, मै इस बेंच पर बैठी थी, वह मुझे उठाना चाहता था। अभी दो वेश्याएँ इसी बेंच पर बैठी थी। क्या मै ऐसी गई बीती हूँ कि यह मुझे वेश्याओ से भी नीच समझे?

रमणीने उसे समझाया कि यह छोटे आदमी जिससे चार पैसे पाते है। उसी की गुलामी करते है। इनके मुँह लगना अच्छा नही।

दोनों स्त्रियो मे परिचय हुआ। रमणीका नाम सुभद्रा था। वह भी सुमन के मुहल्ले मे पर उसके मकान से जरा दूर, रहती थी। उसके पति वकील थे। स्त्री-पुरुष गंगास्नान करके घर जा रहे थे। यहाँ पहुँचकर उसके पति ने देखा कि चौकीदार एक भले घर की स्त्री से झगड़ा कर रहा है तो गाड़ी से उतर पड़े।

सुभद्रा सुमन के रंग-रूप, बातचीत पर ऐसी मोहित हुई कि उसे अपनी गाड़ी में बैठा लिया। वकील साहब कौचवक्सपर जा बैठे। गाड़ी चली। सुमन को ऐसा मालूम हो रहा था कि में विमान पर बैठी स्वर्ग को जा रही हूं। सुभद्रा बहुत रूपवती न थी और उसके वस्त्राभूषण भी साधारण ही थे, पर उसका स्वभाव ऐसा नम्र, व्यवहार ऐसा सरल तथा विनयपूर्ण था कि सुमन का हृदय पुलकित हो गया। रास्ते मे उसने अपनी सहेलियो को जाते देखा खिड़की खोलकर उनकी और गर्व से देखा, मानो कह रही थी, तुम्हें भी कभी यह सोभाग्य प्राप्त हो सकता है? पर इस गर्व के साथ ही उसे यह भय भी था कि कही मेरा मकान देख कर सुभद्रा मेरा तिरस्कार न करने लगे। जरूर यही होगा। यह क्या जानती है कि मै ऐसे फटे हालाे