सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सेवासदन.djvu/३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३८
सेवासदन
 


सुमन-गोरे-गोरे लम्बे आदमी है। ऐनक लगाते है।

गजाधर--हाँ, हाँ, वही है, यह क्या पूरव की ओर रहते है ।

सुमन-कोई बड़े वकील है?

गजाघर--मैं उनका जमाखर्च थोडे ही लिखता हूँ। आते-जाते कभी कभी देख लेता हूँ। आदमी अच्छे है।

सुमन ताड़ गई कि वकील साहब की चर्चा गजाघर को अच्छी नहीं मालूम होती। उसने कपड़े बदले और भोजन बनाने लगी।


१०

दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सवेरे ही से अपनी एक रेशमी साडी की मरम्मत करने लगी।

दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भय था।

वह महरी के साथ सुभद्रा के घर गई और दो-तीन घण्टे तक बैठी रही। उसका वहाँ से उठने को जी न चाहता था। उसने अपने मैके का रत्ती-रत्ती हाल कह सुनाया पर सुभद्रा अपनी ससुराल की ही बाते करती रही।

दोनों स्त्रियों में मेल-मिलाप बढ़ने लगा। सुभद्रा जब गंगा नहाने जाती तो सुमन को साथ ले लेती। सुमन को भी नित्य एक बार सुभद्रा घर गये बिना कल न पडती थी।

जैसे बालू पर तडपती हुई मछली जलधरा में पहुँचकर किलोले करने लगती है, उसी प्रकार सुमन भी सुभद्रा की स्नेहरूपी जलधारा में अपनी विपत्ति को भूलकर आमोद-प्रमोद में मग्न हो गई।

सुभद्रा कोई काम करती होती तो सुमन स्वंय उसे करने लगती। कभी पण्डित पद्मसिंह के लिए जलपान बना देती, कभी पान लगाकर भेज देती। इन कामो में उसे जरा भी आलस्य न होता था। उसकी दृष्टि में