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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/५१

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सेवासदन
 


तथा नीच ठहराया। तुम आज अपनी बदनामी को डरते हो, तुम को इज्जत बड़ी प्यारी है! अभी कल एक वेश्या के साथ बैठे हुए फूले न समाते थे उसके पैरों तले आँख बिछाते थे, तब इज्जत न जाती थी! आज तुम्हारी इज्जत में बट्टा लगा जाता है!

उसने सावधानी से सन्दूकची उठा ली और सुभद्रा को प्रणाम करके घर से चली गई।


११

दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहाँ जाऊँ। गजाधर की निर्दयता से भी उसे इतना दु:ख न हुआ था जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंंने अपने घर से निकलकर बडी़ भूल की। मैं सुमद्रा के बल पर कूद रही थी। मैं इन पण्डितजी को कितना भला आदमी समझती थी। पर अब यह मालूम हुआ कि यह भी रँगे हुए सियार है। अपने घर के सिवा अब मेरा कही ठिकाना नही है। मुझे दूसरो की चिरोरी करने की जरूरत ही क्या? क्या मेरा घर नही था? क्या मैं इनके घर जन्म काटने आई थी। दो-चार दिन में जब उनका क्रोध शान्त हो जाता, आप ही चली जाती। ओह! नारायण! क्रोध में बुद्धि कैसे भ्रष्ट हो जाती है। मुझे इनके घर में भूलकर भी न आना चाहिए था, मैंने अपने पाँव में आपही कुल्हाड़ी मारी। वह अपने मन मे न जाने क्या समझते होंगे।

यह सोचते हुए सुमन आगे चली, पर थोड़ी ही दूर चलकर उसके विचारो ने फिर पलटा खाया। मैं कहाँँ जा रही हूँ? वह अब मुझे कदापि घर में न घुसने देगे। मैने कितनी विनती की, पर उन्होंने एक न सुनी। जब केवल रात दों घण्टे की देर हो जाने से उन्हें इतना सन्देह हो गया तो अब मुझे पूरे चौबीस घण्टे हो चुके है और में शामत की मारी वही आई जहाँँ मुझे न आना चाहिए था। वह तो अब मुझे दूर ही से दुत्कार देंगे। यह दुत्कार क्यों सहूँ? मुझे कही रहने का स्थान चाहिए। खाने