पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/११

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। ७ उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण तक यूरोपीय राष्ट्र परस्पर स्पर्धा करते और लड़ते-झगड़ते रहे। इसी बीच अंग्रेजी साम्राज्य की पूर्व में स्थापना दृढ़ हो गई। अब यूरोप के परस्पर के युद्ध बन्द हो गए, और यूरोप तथा अमेरिका के विद्वानों की सम्मिलित वैज्ञानिक खोजों ने एक के बाद एक, नए नए आविष्कार किए, जिनके सहारे पूंजीपति अपने व्यवसायों को उन्नत करते चले गए। तेल, कोयला और बिजली की उपलब्धि ने इन महाजातियों के शक्ति-स्रोत को प्रवाहित कर दिया । अब उनके आर्थिक स्वार्थ परस्पर टकराने लगे, जिसने एक नए संघर्ष का रूप धारण कर लिया, और इन पूँजीवादी देशों में लोग 'श्रमिक' और 'पूंजीपति' इन दो दलों में विभक्त हो गए। इस संघर्ष को दूर करने में इन शक्तिशाली राष्ट्रों ने सुदूरपूर्व के पिछड़े हुए राष्ट्रों पर अधिकार कर, उन्हें कच्चे माल का उत्पादक और पक्के माल का ग्राहक बना लिया । इससे अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष उठ खड़े हुए, जिसके फलस्वरूप यूरोप को दो महायुद्ध करने पड़े, जिन से वह तबाह हो गया । उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक संसार की खोज समाप्त हो गई थी और उसके अधिकांश भाग को यूरोप के लोभी राष्ट्रों ने बाँट लिया था। परन्तु, दुर्भाग्य से यूरोप कभी भी एक राष्ट्र नहीं बन सका; छोटे-छोटे परस्पर विरोधी राष्ट्रों में बंटा रहा। इसका एक गम्भीर कारण था । यद्यपि वह मूल ग्रीक संस्कृति से प्रभावित था, परन्तु पुर्तगाल, फ्रांस और इटली पर लैटिन संस्कृति का विशेष प्रभाव था। ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रिया, इंगलैंड, डेनमार्क, नार्वे और स्वीडन पर उत्तरी आर्यजाति का प्रभाव था। रूस और बाल्कन प्रदेशों पर एशियाई संस्कृति का असर था। इसी से सारा यूरोप ग्रीक-रोमन संस्कृति का माध्यम पाकर भी कभी एक न हो सका, विभिन्न राष्ट्रों में बँटा रहा । और वे राष्ट्र परस्पर लड़ते रहे । अनेक संघर्षों का सामना करते हुए ब्रिटेन के राजनीतिज्ञों की शक्ति- संतुलन-नीति यूरोप का नेतृत्व करने लगी। और चूँकि यूरोप की सत्ता का संसार के अन्य भू-भागों पर भी प्रभाव था, इस लिए ये संघर्ष दिन- १४