पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/१३१

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वह लाल किले में रहने वालों का बाज़ार था । जिस में क़िले वाले सिपाहियों और दूसरे लोगों को उन की ज़रूरत की सभी चीजें मिल जाती थीं। फ़ैज़ बाज़ार के सामने दरिया की ओर घना जंगल था। जमना का पानी बरसात में फ़ैज़ बाज़ार की सड़कों पर चढ़ पाता था और दूकानें उस में डूब जाती थीं। इस समय जहाँ फ़ैज़ बाज़ार का थाना है-वहाँ अंग्रेज़ों की रेजीडेन्सी थी। अंग्रेज़ रेजीडेन्ट उसमें रहता था । रेजीडेन्सी अच्छी खासी किलेनुमा इमारत थी। जिस की दीवारें बहुत पुख्ता थीं उसकी फ़सीलों पर हर वक्त तोपें चढ़ी रहती थीं। और हर वक्त लाल मुँह के फ़िरंगी सारजेन्ट पहरे पर मुस्तैद रहते थे । रेजीडेन्सी के चारों ओर अंग्रेजों के बंगले थे। पर अभी वह मुहल्ला काफ़ी आबाद न था । रात में तो यह पूरा जंगल दीख पड़ता था। आज जहाँ एक से एक बढ़कर बंगले और बाज़ार बन गए हैं, जो आधी रात तक गुलज़ार रहते हैं। उन दिनों वहाँ दिन छिपते ही सन्नाटा हो जाता था । घर से बाहर निकलना जान खतरे में डालना था, क्योंकि चोर-डाकू-गले कट- गिरहकट वहाँ घूमते ही रहते थे। दिल्ली दरवाजे के बाहर तो जाना एक दम खतरे का काम था-खास कर रात के वक्त में । दिल्ली दरवाजे की फ़सीलों के बाहर न कोई पक्की सड़क थी-न रास्ता। केवल एक सड़क महरौली को जाती थी। जो घूम कर मथुरा की सड़क से मिल गई थी। इसी फैज़ बाजार में एक छोटी-सी बिसाती की दूकान थी। दूकान में पुराने सामान, तस्वीरें, पुराने कपड़े, बर्तन, सूई-धागा, मिट्टी के बर्तन, पुराने हथियार और ऐसी ही अगलम-बगलम चीजें बिकतीं थीं। बाहर से देखने में दूकान बड़ी गंदी देख पड़ती थी। जहाँ सब सामान बेतरतीबी से पड़ा रहता था। लोग इस दूकान पर से मछली और अंडे से लेकर जूते और नमक मसाले तक खरीद सकते थे। दूकान भीतर बड़ी गहरी चली गई थी। वहाँ दिन में भी अंधेरा रहता था। दूकान में दो चार हुक्के