पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/१४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मुक्तेसर के आस-पास इस समय अनेक छोटी-छोटी मुस्लिम ज़मी- दारियाँ थीं। इनमें कुछ तो रुहेले थे, जो अहमदशाह दुर्रानी के साथ आए थे, और अब यहीं बस गए थे। कुछ मुग़ल थे। उस अंधेरगर्दी में जिसने जो इलाक़ा हथिया लिया, वही उसका स्वामी बन बैठा था। बाद- शाह तो सिर्फ यही चाहता था कि उन्हें ठीक वक्त पर खिराज मिल जाय । शुरू में ये जमींदार बादशाह को खिराज ठीक-ठीक देते रहे । पर जब मराठों, और अंग्रेजों ने बादशाह की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया । तो अब इन जमींदारों ने भी खिराज देना बन्द कर दिया । बादशाह की शक्ति न थी कि इनसे खिराज वसूल करे। इसी से जब कम्पनी-बहादुर का अधिकार हुआ और बादशाह केवल पैन्शन पाने के अधिकारी रह गए तो अंग्रेजों ने बेरहमी से खिराज और लगान उगाहना आरम्भ किया । अब ये ज़मींदार अंग्रेजों को खिराज देते और ठसक से रहते थे। मुक्तेसर के पास बड़े गाँव के मियाँ का दबदबा सब से बढ़-चढ़ कर था। ये बीस गावों के मालिक थे। उनका सौजन्य और उदार तथा धर्मवृत्ति से प्रभावित होकर चौधरी का प्रारम्भ ही में उनसे प्रेम हो गया। बड़े-गाँव के मियाँ ने ही चौधरी की प्रारंभ में बहुत मदद की थी चौधरी इस अहसान को भूले नहीं। दुर्भाग्य से इस वक्त बड़े-गाँव का इलाका सम्पन्न नहीं रहा। बड़े मियाँ पर चौधरियों ही का बड़ा क़र्जा लद गया था। पर चौधरी और बड़े मियाँ के बीच जो प्रेम और मैत्रीभाव था वह ज्यों का त्यों ही रहा। ये दोनों ही सरदार-जिनमें एक शरीफ मुसलमान और दूसरे धर्मनिष्ट हिन्दु थे। परस्पर पड़ोसी ज़मींदार थे। और उनका अपना रहन-सहन और आपसी व्यवहार कैसा था, इसकी यत्किंचित् झलक उपन्यास के प्रारम्भ में हम ने दिखाने की चेष्टा की है। यह काल यद्यपि राजनैतिक अंधेरगर्दी का था, परन्तु हिन्दु-मुसलमान आपस में प्रेम से रहते थे। उनके भाईचारे के सम्बन्ध अटूट थे। वे परस्पर सच्चे पड़ौसी और सच्चे मित्र थे, जिसका दिग्दर्शन प्रारम्भिक परिच्छेदों में है। १४५