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पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/३२

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इस घर की देख-भाल पाप ही पर छोड़ता हूँ । नादान बच्चे हैं, आप ही को उनकी सरपरस्ती करनी होगी। सब भाई समझदार और दाना आदमी हैं, उम्मीद है खानदान को दाग़ न लगने पायगा, सिर्फ़ आप का साया सर पर रहना चाहिए।" "उस घर से भी ज्यादा यही घर मेरा है चौधरी, आप किसी बात की फिक मत कीजिए। क्या साहेबज़ादी की बात कहीं लगी है ?" "अभी नहीं। उसे तो बस पढ़ने की ही धुन लग रही है । बेगम समरू जब से तशरीफ़ लाई हैं, उस का सिर फिर गया है । बेगम ने ही उसे पढ़ाने को एक अंग्रेज़ लेडी रखवा दी है। देखता हूँ उस की सोहबत में वह नई-नई बातें सीखती जा रही है । मगर बिना माँ की लड़की है । सात भाइयों में अकेली । सभी की आँखों का तारा । इसी से हम लोग कोई उस की तबियत के खिलाफ़ काम करना नहीं चाहत ।" “यही हाल छोटे मियाँ का है। हज़रत सलामत के कहने से इसे फ़िरंगियों के मिशन कालेज में दाखिल किया था। अब वह अंग्रेजो पढ़ कर नई दुनियाँ की नई बातें करता है।" "भगवान् इस की उम्र बड़ी करे ; तो हर्ज़ क्या है । नई दुनिया आने वाली है । नई दुनिया के आदमी भी नए ही होंगे । इन फ़िरंगियों को ही देख लो ; हर बात नई है । अच्छा है, बच्चे नए ज़माने की रोशनी से वाकिफ हो जाएं । हमारा क्या, आज मरे --कल दूसरा दिन।" इसी वक्त मंगला हाथ में दूध का गिलास ले कर कमरे में आ गई। सत्रह साल की स्वस्थ लड़की । हर अदा में अल्हड़पना, कुछ जवानी और कुछ बचपन का मिला-जुला रंग, सुर्ख नारंगी-से गाल, बड़ी-बड़ी आँखें, चाँदी से उज्ज्वल माथे पर खेलती हुई काली चूंघरवाली लटें। तिल के फूल सी कोमल नाक, और कुछ फूले हुए लाल ओंठ । कमरे में बाहरी आदमियों को देख वह ठिठकी। और मुँह फेर कर लौट चली। पर चौधरी ने क्षीण स्वर में कहा-"चली आयो बेटी, चली आयो; दादा जान हैं, पहचाना नहीं।" - ३५