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पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/९५

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- और कहा, "होल्कर सरकार को मैं कम महत्व नहीं देता, इसी से मैंने तुम से मुलाक़ात की है । अब कहो ; क्या कहते हो ।” "मैं महाराज की भलाई की ही बात करूँगा।" "तो मैं भी उस पर पूरा विचार करूंगा, लेकिन तुम्हें होल्कर ने कोई अधिकार-पत्र देकर मेरे साथ बातचीत करने नहीं भेजा है। तुम सिर्फ वह वाहियात पत्र लेकर पाए हो।" "महाराज, इतना तो आप समझ ही जाएंगे कि श्रीमन्त का वह गुप्त पत्र लाने वाला-उनका विश्वासपात्र है, और सुरक्षा के विचार से ज़बानी ही बातचीत का अधिकार लेकर आया है।" "खैर, तो अब तुम्हारी बात में क्या सार है । तुम यदि यह कहना चाहते हो कि मैं अंग्रेज़ों की संधि भंग करके होल्कर का साथ दूं, तो यह एकदम मूर्खतापूर्ण बात होगी ।" “महाराज ऐसा क्यों सोचते हैं। क्या महाराज ने नहीं सुना कि होल्कर ने अकेले ही अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए हैं । यदि आपकी शक्ति उनसे मिल जाय तो भारत में एक नए हिन्दू साम्राज्य का उदय हो सकता है।" "कैसे हो सकता है ? समूचे द्वाबे में, दक्खिन में और बंगाल तक अंग्रेज़ों का अमल बैठ चुका । अव दिल्ली का बादशाह उनकी पैन्शन पाने वाला कैदी है, जो अपने ही घर लाल किले में कैद है। मराठा-मण्डल टूट चुका है । अंग्रेजों ने अपने सब प्रबल शत्रुओं को ज़ेर कर लिया है । सब बड़ी-बड़ी रियासतों को सबसीडियरी बंधन में बाँध लिया है। हैदराबाद का निज़ाम, अवध के नवाब-बादशाह, पेशवा, गायकवाड़ राजपूत राजाओं ने भी उनसे यह संधि की है। टीपू ने सिर उठाया और जान से हाथ धोया । पेशवा ने वसीन संधि पर हस्ताक्षर कर दिया। अन्त में लासवाड़ी में सिंधिया के भाग्य का भी फैसला हो गया, और उसने अहमदनगर, भडोच, द्वाबे का इलाक़ा, आगरा और दिल्ली अंग्रेजों को दे दी। अब तुम किस प्राशा से मेरे पास आए हो?" ९८