राज्य सकता। मैं ने होल्कर सरकार को पहले भी सलाह दी थी, और अब भी कहता हूँ, वे अंग्रेजों से सुलह कर लें। इसी में उनकी भलाई है। और तुम चौधरी, मुझ से अपने लिए कुछ चाहो तो कहो । क्या तुम मेरे में बसना चाहते हो ?" चौधरी खिन्न मन उठ खड़े हुए। उन्होंने हाथ बाँध कर कहा, "महाराज की इस कृपा-दृष्टि को याद रखूगा-और जब ऐसी आवश्यकता होगी आप की शरण में आऊँगा। अभी तो महाराज, मुझे दिल्ली जाना अत्यन्त आवश्यक है।" रणजीतसिंह ने चौधरी को तलवार और सिरोपाव देकर विदा किया। और चौधरी खिन्न मन बिना एक क्षण नष्ट किए दिल्ली की ओर चल दिया। लार्ड लेक लार्ड जनरल लेक अपने बंगले के बरांडे में एक सफ़री आराम कुर्सी पर लेटे सिगार पी रहे थे। बरांडे से अंग्रेज़ी छावनी का वह भाग दीख रहा था जहाँ देशी पल्टनें पड़ी हुई थीं। बीच-बीच में सिपाहियों की आवाज़ या घोड़ों की हिनहिनाहट से वहाँ की शान्ति भंग हो जाती थी। उनके हाथ में गवर्नर-जनरल का लम्बा खत था, जो अभी-अभी उन्हें मिला था। खत को वह कई बार पढ़ चुके थे। हर बार पढ़ कर आँखें बन्द करके कुछ गभ्भीर चिन्तन में निमग्न हो जाते थे। और फिर उसे खोल कर पढ़ने लगते थे । हक़ीक़त यह थी कि पत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण था । और वे उससे सम्बन्धित आगे-पीछे की सब बातों पर विचार कर रहे थे। अंग्रेज़ों का यह प्रसिद्ध सेनानी-जिस के नाम की भारतीय और यूरोपियन सभी शत्रु-मित्र सेनाओं में धाक थी, इस समय शान्त एकान्त वातावरण में चुपचाप सिगार का धुआँ उड़ाता हुआ-भूत-भविष्य के तानों-बानों में उलझा हुआ था। उसके शुभ्र चाँदी के समान मस्तिष्क पर रेखाएँ उभरती जाती थीं। उसकी मुखाकृति भव्य थी, और उससे १००
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