भी सूर्य की किरणें प्रविष्ट नहीं हो सकती थीं। वहाँ रात-दिन सोने के बड़े-बड़े दीपकों में घृत जलाया जाता था तथा चन्दन-केसर-कस्तूरी की धूप रात-दिन जलती रहती थी, जिसकी सुगंध से महालय के आस-पास दो-दो योजन तक पृथ्वी सुगन्धित रहती थी। रंग-मंडप के चिकने स्वच्छ फर्श पर देश-देश की असूर्यपश्या महिलाएँ रत्नाभूषणों से सुसज्जित, रूप-यौवन से परिपूर्ण, गुणगरिमा से लदी-फदी, जगह-जगह बैठी श्रद्धा और भक्ति से नतमस्तक कोमल स्वर से भगवान सोमनाथ का स्तवन घण्टों करती रहती थीं। नियमित पूजन और नित्यविधि के समय पाँच सौ वेदपाठी ब्राह्मण सस्वर वेद-पाठ करते, और तीन सौ गुणी गायक देवता का विविध वाद्यों के साथ स्तवन करते, तथा इतनी ही किन्नरी और अप्सरा-सी देवदासी नर्तकियां नृत्य-कला से देवता और उनके भक्तों को रिझाती थीं। नित्य विशाल चाँदी के सौ घड़े गंगाजल से ज्योतिर्लिंग का स्नान होता था, जो निरन्तर हरकारों की डाक लगाकर एक हजार मील से अधिक दूर हरिद्वार से मंगवाया जाता था। स्नान के बाद बहुमूल्य इत्रों से तथा सुगन्धित जलों से लिंग का अभिषेक होता था, इसके बाद शृंगार होता था। सोमनाथ का यह ज्योतिर्लिंग आठ हाथ ऊँचा था, अतः इसका स्नान, अभिषेक-शृंगार आदि एक छोटी-सी सोने की सीढ़ी पर चढ़ कर किया जाता था। सब सम्पन्न हो जाने पर आरती होती थी, जिसमें शंखनाद, चौघड़िया घण्ट आदि का महाघोष होता था। यह आरती चार योजन विस्तार में सुनी जाती थी। मंडप में दो सौ मन सोने की ठोस शृंखला से लटका हुआ एक महाघण्ट था, जिसका वज्रगर्जना के समान घोर रव मीलों तक सुना जाता था। सोमनाथ महालय के चारों द्वारों पर एक-एक पहर के अन्तर से नौबत बजती थी। इस प्रकार ऐश्वर्य और वैभव से इस महातीर्थ की महिमा दिग्-दिगन्त तक फैल गई थी। इन सब कामों में अपरिमित द्रव्य खर्च होता था, किन्तु उससे महालय के अक्षय कोष में कुछ भी कमी नहीं होती थी। दस हज़ार से ऊपर गाँव महालय को राजा-महाराजाओं के द्वारा अर्पण थे। महालय के गगनचुम्बी शिखर पर समुद्र की ओर जो भगवे रंग की ध्वजा फहराती थी, वह दूर देशों के यात्रियों का मन बराबर अपनी ओर खींच लेती थी। महालय के शिखर के स्वर्ण-कलश सूर्य की धूप में अनगिनत सूर्यों की भाँति चमकते थे।
महालय के चारों ओर असंख्य छोटे-बड़े मन्दिर, घर, महल और सार्वजनिक स्थान थे जो मीलों तक फैले थे तथा जिनसे महालय की शोभा बहुत बढ़ गई थी। इस प्रचण्ड महालय के संरक्षण के लिए चारों ओर काले पत्थर का अत्यन्त सुदृढ़ परकोटा बँधा हुआ था जिसमें स्थान-स्थान पर अठपहलू बुर्ज़ बने हुए थे। बाहरी मैदान में चालीस हज़ार सैनिक एक साथ खड़े रह सकें, इतना स्थान था। जब महालय की खाई में समुद्र का जल भर दिया जाता था, तब उसका दृश्य समुद्र के बीच एक द्वीप का दृश्य बन जाता था। परकोटे के भीतर नगर-बाज़ार तथा सद्गृहस्थों के मकान आदि थे, जहाँ देश-देश के अनगिनत व्यापारी, शिल्पी और राजकाजी जन तथा महालय-कर्मचारी अपना-अपना कार्य करते तथा निवास करते थे। उनके आराम के लिए अनेक कुएँ-बावड़ी-तालाब-सर-सरोवर-उपवन आदि थे।
देश के भिन्न-भिन्न राजाओं की ओर से बारी-बारी महालय पर चाकरी-चौकसी होती थी। इसके अतिरिक्त महालय की ओर से भी एक सहस्त्र सिपाही नियत थे, जो सावधानी से महालय की करोड़ों की सम्पत्ति की तथा वहाँ के बसने वाले करोड़ाधिपति