अजयपाल, सेवन्दराय, सालार मसऊद और तिलक हज्जाम को अजमेरपति के पास भेजा। साथ में बहुत-सी बहुमूल्य भेंट भी भेजी। सुलतान के दूतों का यथोचित सत्कार करके धर्मगजदेव ने उनके आने का कारण पूछा। इसपर सालार मसऊद ने सुलतान का खरीता महाराज की सेवा में पेश किया। महाराज की आज्ञा से खरीता भरी सभा में पढ़ा गया। उसमें लिखा था- “अजमेर के महाराज, आपकी वीरता और दरियादिली का हमने बहुत बखान सुना है। हम, गज़नी के यशस्वी सुलतान आपकी दोस्ती के लिए हाथ पसारते हैं। हमारी राह रोकने को, अपना लश्कर लेकर आने का आपका क्या मतलब है? हमारा इरादा आपके मुल्क पर हमला करने का नहीं है। खुदा के हुक्म से कुफ्र तोड़ने, थोड़े से जांनिसार साथियों के साथ हम गुजरात की ओर जा रहे हैं। आप हमारी राह छोड़कर दोस्ती का सबूत दीजिए। हमारा नाम महमूद है, हमारी तलवार और गुस्सा दुश्मनों का काल है। हमारे दुश्मनों को मौत और आग तथा गुलामी के आँसू नसीब होते हैं। उम्मीद है, आप दुश्मनी का नहीं, दोस्ती का हमें सबूत देंगे। अस्सलाम।" महाराज ने धैर्य से पत्र सुना और मर्मभेदी दृष्टि अपने सामन्तों पर डाली। फिर उसने सुलतान के दूतों को देखा। उसकी दृष्टि मुलतान के राजा अजयपाल पर ठहर गई। अजयपाल ने आगे बढ़कर विनम्र वाणी से कहा, “महाराज, राजनीति कहती है कि अयाचित आपत्ति को निमन्त्रण नहीं देना चाहिए। सो आप आगे-पीछे की सब बातें सोच- विचार कर अमीर से मैत्री-व्यवहार कीजिए। इसी में भलाई है।" महाराज ने उसे घूरकर देखा। वह जानते थे कि उनका यह सम्बन्धी वीर और बुद्धिमान है। उसकी आँखें चमकदार, नाक उभरी और दाढ़ी अधकचरी थी। कुछ देर उसे वह घूरते रहे फिर धीरे से गम्भीर स्वर से बोले- "महाराज अजयपाल, आपने बिना ही लड़े मुलतान अमीर को सौंप दिया?" “महाराज, हमारा बल नगण्य था, हम युद्ध नहीं कर सकते थे, आप ही सोचिए, नष्ट होने के लिए आत्मघाती युद्ध करने से क्या लाभ?" “इसीसे आपने सुलतान को आत्म-समर्पण कर दिया?" "हाँ महाराज! और सुलतान ने नागरिकों से थोड़ा दण्ड लेकर उन्हें छोड़ दिया। नगर को काई हानि नहीं पहुँचाई, न नगर लूटा गया।" "दण्ड किस अपराध का?" "अजयपाल की वाणी लड़खड़ाई। उसने कहा, “अपराध का नहीं महाराज, नगर न लूटने का वचन देकर।" 'और सुलतान से इस सहयोग करने के सिले में आप ही मुलतान के राजा कायम रहे?" "हाँ महाराज, यशस्वी सुलतान ने मुझे मुलतान का अधीश्वर स्वीकार कर लिया “इसी से कृतकृत्य होकर अब आप सुलतान की मुसाहिबी कर रहे हैं। औरों को भी अपनी भाँति सुलतान का कृपापात्र बनाना चाहते हैं-विशोषकर अपने सम्बन्धियों को?" “यही बात है महाराज, लाभ-हानि...।" ca
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