“सुलतान को लाचार सुलह करनी पड़ी। वे जख्मी हुए और फौज बिलकुल बर्बाद हो गई।" “फिर?" "सुलह की शर्त के अनुसार हमें आज ही छावनी उठाकर लौटना आवश्यक हो गया है, अमीर के सारे मंसूबे धूल में मिल गए।" "तो मैं क्या करूं?" “यदि वादे के अनुसार आपकी मदद मिलती तो ऐसा न होता।" "क्या छावनी उठा दी गई?" “जी हाँ।' “अमीर क्या घोड़े पर सवार होने योग्य हैं?" “सवार हो सकते हैं, लड़ नहीं सकते।" “अमीर की सेना में कोई जीवट का सेनापति है?" "और अमीर का वादा?" “पक्का है।" "ज़ामिन?" “शाह मदार।" "उनके मुँह से सुना चाहता हूँ।" "चलिए।" “ठहरो, एक प्रहर रात रहते महाराज पर हमला कर दो। सिर्फ एक हज़ार पक्के सवार काफी हैं।" "वह हो जाएगा, लेकिन..." "राजपूतों की सब सेना अजमेर आ चुकी है। मैंने उन्हें तीन दिन मौज-मज़ा करने की छुट्टी दे दी है। वे सब अपने-अपने गाँवों को चले गए हैं। पुष्कर में महाराज के केवल अंगरक्षक ही उनके साथ हैं। ब्राह्म मुहूर्त में महाराज सन्ध्यावन्दन करते हैं, वही समय ठीक होगा। उन्हें घेरकर कैद कर लो, फिर जैसा जी चाहे, उनके साथ बर्ताव करो।" "लेकिन अजमेर से मदद मिलते कितनी देर लगेगी?" "अजमेर की सेना मेरे अधीन है। यदि अमीर का वादा पक्का है तो अजमेर से सहायता नहीं मिलेगी।" “वादा पक्का है, शाह ज़ामिन हैं, चलिए।" "चलो।" तीनों व्यक्ति शाह के पास आए। आकर चुपचाप बैठ गए। इस समय शाह साहेब अकेले चुपचाप बैठे थे। युवक ने कहा- “शाह ज़ामिन हैं? शाह ने धीरे से कहा, “खुदा भी जामिन है।" "तब ठीक है।" युवक शाह को प्रणाम कर चल दिया। उसके पीछे दोनों पुरुष भी। बाहर अश्व बँधे थे। अश्व पर सवार हो उन्होंने तेज़ी से पुष्कर की घाटी में अपने अश्व फेंक दिए।
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