करता था। वह ढोंगी तो था ही। इन दिनों वह अपनी महत्त्वाकांक्षाओं पर परदा डालने के लिए साधु-वेश धारण करता रहा था। वह चांदी की छूटी की खड़ाऊँ पहनता, भगवा वस्त्र धारण करता, और मृग-चर्म पर बैठकर धर्म-कार्य और राज्य-कार्य करता था। इतना होने पर भी वह राज-छत्र, चंवर और मशाल का मान अवश्य धारण किए रहता था। लोग उसे साधु, त्यागी और धर्मात्मा राजकुमार समझ कर उसका मान करते थे। सिद्धपुर का किला गुजरात के प्रसिद्ध किलों में से एक था। वहाँ उसने बहुत-सी सेना, सेवक और शस्त्रास्त्र संग्रह कर लिया था। परन्तु उसने किले के राज महालय का निवास त्याग दिया था। किले के कोटे से संलग्न ही प्रसिद्ध रुद्र महालय था। यह महालय महाराज मूलदेव राज ने बनवाया था। उसकी विशालता और स्थापत्य-कला ऐसी थी कि वैसा दूसरा देवस्थान गुजरात में न था। सोमनाथ के बाद इसी का स्थान था। यह ढोंगी राजकुमार साधु-वेश में परम माहेश्वर का पद धारण करके इसी रुद्र महालय में निवास वह निरभिमान होने का प्रदर्शन भी करता था। वह सब छोटे-बड़े व्यक्तियों के घर चला जाता, उनके सुख-दु:ख का हाल-चाल पूछता। उनकी संपत्ति-विपत्ति में सहायता करता। इन सब कारणों से वह खूब लोकप्रिय हो गया था। गज़नी के सुलतान की खबर खूब रंग-रंगाकर आ रही थी। सारे ही गुजरात में उन खबरों से आतंक फैल रहा था। लोग घबराकर अपना माल-मत्ता छिपा रहे थे। कुछ इधर- उधर भाग रहे थे। अजमेर और नान्दोल की तबाही और घोघागढ़ के पतन की खबरों ने, लोगों के रक्त का पानी बना दिया था। देश का सारा कारोबार, यातायात, कृषि आदि उद्योग ठप्प पड़ गए थे। समूचे देश में भय, आतंक, निराशा और अनिश्चितता का वातावरण भर गया था। परन्तु दुर्लभदेव अत्यन्त सावधानी औद दक्षता से अपनी योजना बना रहा था। उसने यह योजना स्थिर की थी कि इस म्लेच्छ को यथासम्भव गुप्त सहायता पहुँचा कर देश को उजड़वा डाला जाए। इसी से सब विरोधिनी शक्तियों का नाश कर डाला जाए। पीछे, जब वह लौट जाए तो गुजरात पर अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया जाए। इसके अतिरिक्त इस आड़ में खूब सैन्य भरती करके तथा शस्त्रास्त्र संग्रह करके दूर से जो हो रहा है देखा जाए। पीछे इसी शक्ति की सहायता से गुजरात की गद्दी हथिया ली जाए। इस प्रकार योजना स्थिर करके वह जी-जान से उसकी पूर्ति में जुट गया। उसने बहुत-से चर, देश-भर में फैलाकर घर-घर यह प्रचार कराया कि म्लेच्छ देश पर चढ़ा चला आ रहा है, उसका सामना करने के लिए सब कोई सिद्धपुर में एकत्र हों। अनेक स्थानों पर उसने स्वयं जाकर राजपूतों, गरासदारों और सर्वसाधारण को उत्तेजित किया। उसकी प्रभावशाली मुख-मुद्रा, साधु-वेश, धर्म-प्रेम और देश-प्रेम की उत्तेजना-मूलक बातें सुन- सुनकर भावुक और धर्मप्राण पुरुष हज़ारों की संख्या में उसके झण्डे के नीचे आ पहुँचे। और देखते ही देखते एक अच्छा लश्कर उसने संग्रह कर लिया। सोरठ में मिहिर लोगों की बस्ती थी। ये सोरठ के प्रसिद्ध लड़ाकू वीर थे, पर चोरी- डकैती या छोटे-मोटे काम करके खानाबदोशों की भाँति रहते थे। इस चालाक राजकुमार का उनकी ओर ध्यान गया। उसने अपने साधुत्व के प्रभाव से इन्हें अपनी ओर आकर्षित किया, भगवान् सोमनाथ के नाम पर उसने ऐसी उत्तेजना उनमें भरी कि वे प्राणपण से
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