रहे थे। गर्भगृह के बाहर सभामण्डप में सहस्रों भावुक भक्त दर्शन की अभिलाषा से खड़े थे। सहस्राभिषेक और शृंगार हो चुकने पर सर्वज्ञ ने गंगा की ओर संकेत किया। गंगा चौला का हाथ पकड़ कर सर्वज्ञ के सम्मुख गई। चौला आशंका से परिपूर्ण थी, गंग सर्वज्ञ ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा, "कल्याणी! यह आज कार्तिक एकादशी का महापर्व है। महालय की नृत्यशाला के नियमानुसार जो अठारह प्रकार का नृत्य, बारह प्रकार के अभिनय और सात प्रकार के संगीतशास्त्र में निष्णात हो, वही आज आरती के समय पहली बार देवता के आगे नृत्य कर सकती है। बाले! वह अधिकार गंगा की साक्षी से आज मैं तुझे देता हूँ। आज के इस धन्य क्षण में तू अपनी देहयष्टि का बालपुष्प देवता को अर्पण कर! तन-मन सब कुछ देवार्पण कर, जिससे देवाधिदेव सोमनाथ तुझ पर प्रसन्न हों! आज तेरी जन्म-जन्म की तपश्चर्या सफल होगी। तू अपनी इन्द्रियों का और मनोवृत्ति का घोर दमन कर। आहार, निद्रा और वासना का संयम रख। और भगवान् सोमनाथ में जीवन को लय कर।" यह कहकर सर्वज्ञ ने चौला के मस्तक पर हाथ रक्खा और चौला अर्द्धमूर्च्छित-सी उसी स्थान पर पृथ्वी पर गिरकर भगवान सोमनाथ के चरणों में जैसे लीन हो गई।
आरती का समय हो गया, प्राची दिशा में ऊषा की लाली झलकने लगी। दीपस्तम्भों पर सहस्र-सहस्र दीप जल रहे थे। परकोट पर दीपावलि झलक रही थी। सभामण्डप में लोगों के ठठ जमे थे, सभामण्डप में स्वर्ण के दीप-स्तंभों पर घृत के सुगन्धित दीप जल रहे थे। मण्डप के बीचोंबीच जंज़ीर में लटके हुए सोने के अस्सी मन वज़नी महाघण्ट का अकस्मात् घोर रव होने लगा, जो मेघ-गर्जन के जैसा लगता था। घण्टरव बार-बार होने लगा। सहस्र-सहस्र हाथों ने उसे स्पर्श किया। उसके साथ ही सहस्र-सहस्र कण्ठों से 'सोमनाथ की जय! ज्योतिर्लिङ्ग की जय! महेश्वर की जय! के निनाद से दिशाएँ कम्पित होने लगीं। सबकी उत्सुक दृष्टि गर्भगृह की ओर थी, जहाँ रत्न-जटित स्वर्ण-दीपाधारों में अगरु और चन्दन के तेल के दीये जल रहे थे। गर्भगृह के बीचोंबीच छाती के बराबर ऊँचा सोमनाथ का ज्योतिर्लिङ्ग पुष्पों और विल्वपत्रों के ढेर में दीख रहा था। उसके ऊपर पन्ने का छत्र था, और स्वर्णजलधारी से गंगोत्तरी का जल बूंद-बूंद टपक रहा था। सौ वेदज्ञ ब्राह्मण सामगान-युक्त स्वर से पुरुषसूक्त का पाठ कर रहे थे।
नक्कारखाने में नक्कारे पर चोट पड़ी। शहनाई बज उठी। लोग धकापेल करते हुए आगे बढ़े। अलमस्त बाबाओं ने दुपट्टों के चाबुक मार-मार कर गर्भद्वार के सामने का स्थान रिक्त कराया। एक ने विशाल शंख फूंका, जिसका प्रचण्ड रव दिशाओं में व्याप्त हो गया। इसके बाद लोगों में सन्नाटा छा गया और सब कोई गर्भगृह की सीढ़ियों की ओर देखने लगे।
सर्वप्रथम गंग सर्वज्ञ शांत मुद्रा से बाहर आए। उनके होंठ हिल रहे थे और शैवसूक्तों की मन्दध्वनि उनसे स्फुटित हो रही थी। लोग सहम कर स्तब्ध रह गए। यही वह पुरुष है जो पाशुपत-धर्म का एकमात्र अधिष्ठाता कहा जाता है; जो भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञाता है।काश्मीर से कन्याकुमारी तक और विन्ध्य से हिमालय के उस पार तक जिसकी अखण्ड शिष्य-परम्परा है। देश-देश के नृपति अपने रत्न-जटित मुकुटों से जगमगाते अपने मस्तक जिसके चरणों में झुकाते हैं, जिसकी आज्ञा को लोग भगवान सोमनाथ की आज्ञा करके मानते हैं।
लोग श्रद्धा से झुक गए। सहस्र कण्ठों से निकला—'जय स्वरूप! जय सर्वज्ञ!'