पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२२५

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फतह मुहम्मद 66 परिचित शब्द-संकेत से आश्वस्त होकर फतह मुहम्मद ने पानी से सिर निकाला। आनन्द ने वट-वृक्ष की डाल पर से झूलकर कहा, “कोई डर नहीं है दोस्त, बाहर आ जाओ”, जब युवक ने जल से बाहर निकल कर कहा, “वह बुजुर्ग कहाँ हैं, मैं उनसे मिलूंगा "तब मेरे पीछे आओ।" दोनों व्यक्ति चुपचाप खिसक कर एक अंधेरी गली में घुस गए और टेढ़े-तिरछे रास्ते पार करते एक छोटे-से मकान के द्वार पर जा खड़े हुए। द्वार पर पहुँच कर आनन्द ने संकेत किया। संकेत होते ही द्वार खुल गया। दोनों ने भीतर जाकर देखा-एक प्रशस्त कक्ष में दामोदर महता गद्दी पर बैठे हैं। युवक ने आगे बढ़कर अदब से उनका अभिवादन किया। अभिवादन का जवाब देकर महता ने हँसकर कहा, “इत्मीनान से बैठ जाओ। और कहो, जिसकी वह तलवार थी, उससे मुलाकात हुई?" "हुई।" "उसने क्या कहा?" उसने कहा, “जिसके पास वह तलवार है, उसका हर हुक्म बजा लाना लाज़िम है।" "तो तुम उस आदमी की मर्यादा भी समझ गए न?" “जी हाँ, मैं हुजूर को रुतबे में अमीर से किसी हालत में कम नहीं समझता।" “ठीक है, अब अपनी बात कहो।" "मुझे सुलतान ने आपकी खिदमत में भेजा है।" “किसलिए?" “सुलतान का पैग़ाम लेकर।" “पैगाम क्या है?" "सुलह! सिर्फ एक चीज़ पाकर वे इस मुहिम से लौट जाएँगे।" "कौन चीज़?" “जांबख्शी हो तो अर्ज करूँ?" “कहो।" "वह नाज़नीं।" 'कौन?" "चौला नर्तकी।" दामोदर महता गम्भीर मुद्रा में क्षणभर बैठे रहे। फिर कहा, “कल भी क्या इसी बात को कहने आए थे?" “जी नहीं।" “वह बात क्या थी?" “अब उस बात को रहने दीजिए।" c