दद्दा चौलुक्य रस न था। जिस समय मुहाने की चौकी पर वृद्ध शार्दूल कमा लाखानी अपनी जाग्रत सत्ता से प्रभास का संकट टालने का यह प्रयत्न कर रहे थे, उसी समय उसी अर्द्ध निशा में द्वारिका- द्वार पर कुछ दूसरा ही दृश्य समुपस्थित था। भरुच के दद्दा चौलुक्य की चौकी द्वारिका-द्वार पर थी। आधी रात बीत चुकी थी। और चौलुक्य एक सैनिक के साथ कोट की देखभाल कर रहे थे। उनकी आयु अभी तरुण थी। शरीर सुकुमार और सुन्दर था। वे कर्मठ पुरुष न थे। मूलराजदेव ने जब दक्षिण के सेनापति वारप को परास्त कर भृगु कच्छ ले लिया, तब उन्होंने चौलुक्यों के पुराने राजा के वंशधरों में से एक को लाट की गद्दी पर बैठा दिया था। किन्तु उस पर शासन पाटन के दण्डनायक का रहता था। चामुण्डराय के शासनकाल में दद्दा के पिता ने विद्रोह किया था, सो उसे पदच्युत करके चामुण्डराय ने दद्दा को गद्दी पर बैठा दिया था। अब राजा बने दद्दा भरुकच्छ में चैन की बंसी बजा रहे थे। पाटन के दण्डनायक का फरमान पाने पर उन्हें यहाँ आना पड़ा। पौष की शिशिर रजनी में उन्हें अपनी नव- परिणीता तृतीया रानी को सूनी सेज पर छोड़कर आना पड़ा था। सो वे पल-पल में भरुच भागने की सोच रहे थे। लड़ाई-झगड़ा उन्हें पसन्द नहीं आ रहा था। युद्ध में उन्हें तनिक भी फिर भी दद्दा चौलुक्य एक विचारवान् तरुण थे। यद्यपि भीरु थे, सुकुमार थे, परन्तु सहृदय थे। जब उन्हें महाराज भीमदेव ने द्वारिका-द्वार की चौकी सुपुर्द की, तो उन्होंने निष्ठापूर्वक वह सेवा ग्रहण की। वे पूरे धर्मभीरु थे। वे वाम शैव थे और भगवती त्रिपुरसुन्दरी के सेवक थे। रुद्रभद्र पर उनकी अपार श्रद्धा थी। उसके आशीर्वाद से उन्हें पुत्र- लाभ हुआ था। उसी के रक्षा-कवच से उन्हें भरुच की गद्दी मिली थी। उसी के तप के प्रभाव से वे जीते-जागते हैं, ऐसा वे मानते थे। उन्होंने अपनी प्रथम पुत्री चौला को उन्हीं के कहने से त्रिपुरसुन्दरी को भेंट कर दिया था, जो गंग सर्वज्ञ के हस्तक्षेप से भगवान सोमनाथ को अर्पित की गई थी। जिससे रुद्रभद्र का क्रोध भड़क कर सीमा पार कर गया था। प्रभास में आते ही उन्होंने सुना कि रुद्रभद्र सहस्राग्नि-सन्निधान तप कर रहे हैं। उन्होंने यह भी सुना कि उनका भेजा निर्माल्य त्रिपुरसुन्दरी की भेंट नहीं हुआ, इसी से क्रुद्ध होकर रुद्रभद्र विनाश का आह्वान कर रहे हैं। उन्हें यह भी विश्वास हो गया कि गज़नी का दैत्य ही यह विनाश बन कर आया है और इसमें रुद्रभद्र की तप:प्रेरणा है। और भी बहुतों की यही राय थी। इसकी चर्चा भी बहुत थी। सर्वज्ञ तक यह चर्चा पहुँच चुकी थी, पर उन्होंने उस पर कान नहीं दिया था। दद्दा जब रुद्रभद्र को प्रणाम करने धूनी पर गए, तो रुद्रभद्र ने उनका प्रणाम स्वीकार नहीं किया। उन्होंने लाल-लाल आँखें करके होंठो-ही-होंठों में ‘विनाश-विनाश' कहकर उन्हें देखा और दूर चले जाने का संकेत किया। भय से काँपते हुए चौलुक्य चले आए। तब से वे अत्यन्त चिन्तित, अपमान और अममंगल-आशंका से आतंकित रहने लगे। उन्हें फिर रुद्रभद्र के सम्मुख जाने का साहस न हुआ। चौला से मिलने का सर्वज्ञ ने उन्हें निषेध
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