हो।" चौलुक्य ने तलवार मस्तक से लगाई। महाराज महासेनापति ने रकाब थामकर वीर को अपने अश्व पर चढ़ाया और रक्त की होली खेलने में मस्त तरुण चौलुक्य, अपने शूरों को ललकारता हुआ जूनागढ़-द्वार पर लपका। उसके साथ अब केवल पाँच सौ ही योद्धा थे। सभी के अंग लोहू से रंग चुके थे। पर यह आन पर खेलने की बात थी। बात की ही तो बात है। इन वीरों ने शत्रुओं के छक्के छुड़ा दिए। वीर चौलुक्य शत्रुओं में धंसे चले गए। उनके चुने हुए वीरों से उन्हें चारों ओर से घेरकर वह मार मारी कि आतंक छा गया। पर इसी समय अमीर के बलूची दैत्य लम्बी- लम्बी खमदार तलवार ले-लेकर दद्दा के छोटे-से दल पर टूट पड़े। कमा उनकी मदद नहीं कर सकते थे। वे अपने जहाज़ों की सुरक्षा में व्यस्त थे। महाराज महासेनापति ने देखा तो क्रोध से थर-थर काँपते हुए महाराज भीमदेव पाँव-प्यादे ही तलवार हाथ में ले दौड़ चले। यह देख बालुकाराय ने दौड़कर उन्हें अपना अश्व दे दिया। महाराज चौलुक्य के पीछे शत्रुओं में धंसते ही चले गए। उन्होंने किसी की आन नहीं मानी। विकट संकट देख बालुकाराय ने महाराज के हज़ारों शरीर-रक्षकों को ललकारा। परन्तु इतने आदमियों के एक साथ बढ़ने की वहाँ गुंजाइश न थी। बढ़ती हुई सेना की प्रगति धीमी पड़ गई। उधर महाराज और दद्दा एकबारगी शत्रु के दबाव में पड़ गए। बालुकाराय चिन्ता से अधीर हो गए। इसी समय एक अत्यन्त भयानक अघट घटना घटी। लड़ते-लड़ते एक बलिष्ठ तुर्क से दद्दा की भिड़न्त हो गई। तुर्क का एक पैर सीढ़ी पर था, दूसरा कोट पर। उसके एक हाथ में विकराल टेढ़ी तलवार थी, दूसरे से वह सीढ़ी थामे था। दद्दा ने लात मारकर उसे पीछे धकेलना चाहा। लात सीढ़ी में उलझ गई। सीढ़ी उलट गई, एक क्षण के लिए दोनों हवा में निराधार लटके और तुर्क के साथ दद्दा भी खाई में जा गिरे। उस स्थान पर खाई में तुर्क ही तुर्क दीख रहे थे। पानी में गिरकर, तुर्क दद्दा से भिड़ गए। दद्दा-जैसे सुकुमार तरुण का, जबकि वे पहले ही घायल हो चुके थे, इस भयानक मुठभेड़ में जुट जाना जीवट का ही काम था। सैकड़ों तलवारें उन पर पड़ रही थीं। और इसमें तनिक भी सन्देह न था कि दद्दा के टुकड़े-टुकड़े हो जाते। महाराज भीमदेव उस समय उनके निकट पहुँच चुके थे, पर उन्हें गिरने से बचा न सके। अब इस प्रकार इस वीर का निधन देखना भी उनके लिए सम्भव न था। महाराज भीमदेव हाथ में तलवार लिए घोड़े समेत ही खाई में कूद पड़े। भय और विस्मय से राजपूत हाहाकार कर उठे। चारों ओर कुहराम मच गया। महाराज महासेनापति भीमदेव को खाई में घोड़े-सहित कूदते हज़ारों आदमियों ने देखा। महाराज का प्राण-संकट और ऐसा दुस्साहस देखकर ललकारते हुए सैकड़ों योद्धा सत्तर हाथ ऊपर कोट से मोट में कूद पड़े। ऊपर कोट पर अनगिनत योद्धा आ जुटे, और बाण-वर्षा करने लगे। महाराज भीमदेव तैरते हुए प्रबल पराक्रम से शत्रुओं का दलन करते हुए दद्दा के निकट आ पहुँचे और चौलुक्य से गुंथे हुए दैत्य का सिर काट लिया। दैत्य से मुक्त होकर चौलुक्य पास ही तैरते हुए एक घोड़े पर चढ़ गए। पल-पल में योद्धा कोट पर से मोट में कूद रहे थे। उस समय पानी में वह खंजर और तलवार चली कि मोट का जल लाल हो गया। उस पार से शत्रु टिड्डी दल की भाँति बढ़े चले आ रहे थे। महाराज और दद्दा पर हज़ारों तलवारें छा रही थीं। बाणों की बौछारों ने उन्हें ढांप लिया था।
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