मग़रिब की नमाज़ 99 रत्न मण्डप में आकर अमीर ने मगरिब की नमाज़ अदा करने को घुटने टेक दिए। सहस्रों नर-मुण्ड जो जहाँ थे झुक गए। हज़रत अलबरूनी ने अमीर के नाम का खुतबा पढ़ा। उन्होंने कहा, “गाज़ी अमीर महमूद शहंशाहे-गज़नी, जिनपर परमात्मा की असीम कृपा है और रहेगी, दुनिया में खुदा के प्रतिनिधि हैं।” इसके बाद उन्होंने महालय से कंगूरे पर चढ़कर बांग लगाई । “ला इलाइल्लिलाह-मुहम्मद रसूल अल्लाह।" सबने ‘आमीन! आमीन!' कहा। अमीर ने जलद गम्भीर स्वर में कहा, "मैं अमीर महमूद, खुदा का बन्दा वही कहूँगा जो मुझे कहना चाहिए। और वही करूँगा जो करना चाहिए। खुदा के हुक्म से कुफ्र तोड़ना सबसे बड़ा सवाब है। और मैं खुदा का बन्दा महमूद, धर्म की इस तलवार को कुफ्र तोड़ने के काम में लाता हूँ और आप सब सवाब के हिस्सेदार फिर सबने आमीन कहा। ज्योतिर्लिंग के रुद्राभिषेक के लिए जो गंगोत्री का पवित्र गंगाजल चांदी के घड़ों में गर्भगृह में भरा रखा था, उसी से उसने वजू किया और मग़रिब की नमाज़ अदा की-उसी रत्न-मण्डप में, जहाँ कभी देव–सान्निध्य में शत-सहस्र नेत्रों के सम्मुख रूपसी देवदासियां नृत्य-लास करती थीं। इसके बाद उसने रत्न–मण्डप की पौर में कुर्बानी की। फतह मुहम्मद ने महालय के शिखर पर चढ़ गगनचुम्बी भगवाध्वज भंग कर महमूद का हरा झण्डा फहरा दिया। इस प्रकार अपने लाशरीक खुदा को प्रसन्न कर, उसके प्रति अपनी कृतज्ञता जता, वह अपने अश्व पर सवार हुआ। उसने महालय और देवपट्टन में अपनी आन फेरी, युद्ध बंद करने का आदेश दिया। आदेश न मानने वालों को कैद करने या कत्ल करने का हुक्म दिया। सब प्रमुख नाकों, आगारों, महालयों पर पहरे-चौकी का प्रबन्ध किया। और सिंह-द्वार के फाटक उखाड़कर उन्हें साथ ले, सब ओर से निश्चित होकर वह तुरही, नफीरी, शहनाई और नक्कारे बजाता हुआ, जिहाद का हरा विजयी झण्डा फहराता अपनी छावनी में लौटा। जब उसने घोड़े की पीठ छोड़ी, एक पहर रात बीत रही थी। हज़ारों घायल, बे-घायल राजपूत बन्दी कर लिए गए। लाशों के उठाने का उस रात कोई बन्दोबस्त नहीं हुआ। जिस कक्ष में गंगा ने अग्निरथ-अभियान किया था, उसके आसपास के सब कक्ष जल कर राख हो गए थे। रात-भर वहाँ आग धधकती रही। किसी ने भी उसे बुझाने की चेष्टा नहीं की, वृद्ध वीरवर कमा लाखाणी इस समय सैकड़ों घावों से लदे-फदे अपने प्रवाहण में एक ओर खड़े महालय के अंचल की उठती हुई लपटों के प्रकाश में भग्न भगवाध्वज को आँसू-भरी आँखों से देख रहे थे। प्रवाहण में अचेत महाराज भीमदेव को चेत में लाने के लिए दामोदर महता और बालुकाराय अथक प्रयत्न कर रहे थे। संसार अंधकार में डूबता जा रहा था और इस अंधकार में एक गहरा काला धब्बा-सा, वह प्रवाहण लहरों पर हिलता- डोलता-सा समुद्र-वक्ष पर बढ़ता हुआ, कच्छ की खाड़ी में सुरक्षित गंदावा दुर्ग की ओर बढ़
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