कठिन न होगा।" “किन्तु अमीर?" "वह आबू की ओर बढ़कर आत्मघात न करेगा।" "और यदि करे?" "तो महाराज की रकाब में, वहाँ डेढ़ लाख तलवारें उसका ऐसा स्वागत करेंगी जिसकी उसने कभी कल्पना भी न की होगी।" "और यदि वह कच्छ के अथाह रन में घुसे?" "तो चौहान सज्जन सिंह वहाँ उसका ऐसा स्वागत करेंगे कि जिसका नाम नहीं।" “क्या सज्जन को हम कोई सहायता नहीं पहुँचा सकते?" “असम्भव है महाराज, फिर उसकी आवश्यकता भी नहीं है। वह रणथम्मी माता के स्थान पर चौकी लिए बैठे हैं, जहाँ से आगे तीन सौ मील के भीतर न एक बूंद जल है, न एक झाड़। न घास-फूस। केवल रेत ही रेत है। रेत के अंधड़ हैं। तूफानी वायु के थपेड़े हैं। ये सब इन दैत्यों की जीवित समाधि के लिए उत्सुक हैं।" "तो अब?" “अब खम्भात का कोई भरोसा नहीं है। गज़नी का दैत्य आपकी गंध सूंघता हुआ चाहे जब आ धमकेगा। इसलिए आप चौला रानी तथा बालुकाराय को लेकर अभी इसी क्षण आबू को कूच कर दें, और मैं सब ब्राह्मणों, सेठियों, स्त्रियों और आवश्यक जनों को भरुकच्छ रवाना करता हूँ। धन, सम्पत्ति और अन्न आदि को बचाने का समय नहीं है, आवश्यक होगा तो हम सब-कुछ आग लगाकर भस्म कर डालेंगे।" "परन्तु यह कदापि न हो सकेगा, महता, मैं इन सब ब्राह्मणों और भद्र नागरिकों को अरक्षित छोड़कर नहीं जाऊँगा।" “किन्तु महाराज... "चुप महता, मैं इसी अपनी तलवार की शपथ खाकर कहता हूँ, कि नहीं जाऊँगा। अरे, जीवन क्या बारम्बार मिलता है। क्या भीमदेव अब प्राणों का भार लेकर इधर-उधर भटकता फिरेगा? नहीं-नहीं, कभी नहीं। हाँ, तुम चौला रानी को सुरक्षित पहुँचाने की व्यवस्था कर दो।" परन्तु इस बार चौला, जो जालीदार गवाक्ष में बैठी मन्त्रणा सुन रही थी, लोक- लाज छोड़ उन्मत्त की भाँति दौड़कर महाराज के पैरों से लिपट गई। उसने कहा, "चाहे जो भी हो, पर मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी, नहीं जाऊँगी -प्राण रहते नहीं जाऊँगी।" “किन्तु प्रिये, समय कठिन है, हमें कठिनाई होगी।" "नहीं होगी महाराज, मैं भी राजा की पुत्री हूँ। जैसे मेरे चरण नृत्य-निपुण हैं वैसे ही मेरे हाथ तलवार चलाने में भी पटु हैं। अब शत्रु क्षत्राणी की तलवार का पानी भी पीकर देखे।" महाराज भीमदेव ने चौला की ओर देखा। हाथ बढ़ाकर उसका हाथ थाम लिया। फिर बालुकाराय से कहा, “तो बालुक, ऐसी ही व्यवस्था करो। सामन्त की सहायता से नगर-दुर्ग की रक्षा की व्यवस्था कर लो। नगर सामन्त के हाथ रहे और दुर्ग तुम्हारी रक्षा में। और महता, तुम जितनी शीघ्र जितने परिवारों को बाहर भेज सको, भेज दो। पर ध्यान "
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