पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३०४

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प्राणों का मूल्य इसी समय महल के फाटक पर आघात होने लगा जैसे द्वार तोड़ा जा रहा हो। शस्त्रों की झनकारें और घायलों की चीत्कारें निकट आने लगीं। शोभना ने कहा, “देवी, हमें सावधान हो जाना चाहिए, शत्रु शायद महल पर धावा बोल रहे हैं।" दोनों स्त्रियों ने तलवारें हाथ में ले लीं और उठ खड़ी हुईं। शोभना ने कहा, “देवी, समय कठिन है, हमें सहायता मिलना सम्भव नहीं है। आप भूगर्भ में चली जाएँ और जैसे भी सम्भव हो, सुरंग पार कर महाराज के दल से मिलकर आबू पहुँच जाएँ। महाराज घायल हैं, वे धीरे-धीरे जाएँगे, उन्हें पा लेना आपके लिए कठिन नहीं है, आप शीघ्रता कीजिए।" परन्तु चौला देवी ने शोभना के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। कहा, “नहीं सखी, हम साथ ही मरेंगी।" “परन्तु मरना तो हमारा ध्रुव ध्येय नहीं है देवी।" “पर मरने का क्षण आ गया तो क्या किया जाए?" “अवशिष्ट कर्तव्य को पूरा करने की राह रहते बच रहना चाहिए।" "तो तुम भी मेरे साथ चलो।" "तब तो दोनों ही की निश्चय मृत्यु होगी, या इससे भी भयंकर दशा। हम लोग शीघ्र ही पकड़ ली जाएँगी। आप जानती हैं, वह दैत्य आप पर दृष्टि रखता है। यदि आपका शरीर उस पाजी के हाथ पड़ा तो क्या होगा?" “मैं प्राण दे दूंगी।' “और महाराज? गुजरात? भगवान् सोमनाथ?" "अब उनके लिए मैं क्या करूँ?" "बहिन, यह युद्धकाल है, और हमारी स्थिति सिपाही की है। भावुकता को छोड़िए, आप गुप्त राह जाकर महाराज से मिल जाइए। और उन्हें अपने प्यार का बल देकर गुजरात की प्रतिष्ठा, धर्म और देवता की रक्षा कीजिए। जिस तरह भी हो, यह दैत्य जीवित न जाने पाए।" “और तुम?" “मैं देवी का अभिनय करके जितनी देर तक सम्भव होगा, दैत्य को यहाँ अटकाऊँगी। फिर अधिक-से-अधिक मूल्य पर प्राण दूंगी। तुम तो जानती ही हो सखी, कि इन प्राणों का स्वामी, वही क्रीत-दासी का पुत्र था, जिसके प्राणों का मूल्य चुका कर मैंने गुजरात के रक्षक की शक्ति, आपकी रक्षा कर ली। अब अपने प्राणों के मूल्य में गुजरात, उसके देवता और धर्म की रक्षा करूँगी। विश्वास करो बहिन, मेरे प्राण सस्ते नहीं हैं। मुझे मुझ पर छोड़ दो, और तुम इन बहुमूल्य क्षणों को नष्ट न करो।" "तो सखी, मैं गुजरात को जीवन देने चली।" “जाओ बहिन, भगवान् तुम्हारी रक्षा करेंगे। समय हुआ तो फिर मिलेंगे। न मिले "