पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३१२

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जीवन को समाप्त कर दूँ। पर तुरन्त ही उसने सोचा-यह तो ठीक नहीं। महल में खोज होगी, यहाँ हम दोनों की लोथ मिलेगी। भेद खुल जाएगा। और चौला देवी की तलाश होगी। नहीं, नहीं। इस लाश को छिपाना होगा। और अन्ततः मुझे वही अभिनय करना होगा। उसने इधर-उधर देखा। वह उठकर झाड़ी के पास गई। वहाँ की मिट्टी कुछ गीली थी। तलवार की नोक से उसने बहुत-सी मिट्टी खोद ली। खोद कर गढ़ा किया। फिर उसने अपनी बहुमूल्य साड़ी उतार कर लाश से लपेट दी। लाश को उठाकर उसने कन्धे पर रखा और लाकर गढ़े में उतार दिया। दोनों नन्हीं मुट्ठियों में मिट्टी लेकर कहा, “मेरे प्रियतम! अपना काम तुमने किया और अपना मैंने। तुमने धर्म, ईमान का प्यार के नाम पर सौदा किया, और मैंने प्यार का धर्म और ईमान के नाम पर। अन्ततः तुमने अपनी राह पकड़ी और मैंने अपनी। मिलन हुआ और उसी क्षण विदाई भी हो गई-मिलन के ही क्षणिक क्षण में हो गई मेरी विदाई। अच्छा प्रियतम विदा, चिर विदा। खूब मिले और खूब चले। वाह।” उसने अपनी दोनों मुट्ठियों की मिट्टी धीरे-धीरे गढ़े में डाली। इसी समय दो आँसू ढरक गए। पर उसने अधिक आँसू न बहने दिए। जल्दी-जल्दी उसने गढ़ा भर दिया। वह तलवार भी उसने लाश के साथ ही दफना दी। फिर उसने रक्त के सब दाग पोंछ डाले और सावधानी से चारों ओर देखती हुई, वह उसी कक्ष में लौट आई। भूख, प्यास, थकान, नींद, दु:ख-दर्द और पीड़ा से वह अर्धमूर्च्छित-सी भूमि पर पड़ी रही।