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पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३१८

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नगर सेठ की समाधि खम्भात नगर निर्जीव-सा हो गया था। बहुत लोग अमीर के सम्मुख युद्ध में कट मरे थे। बहुत नगर छोड़कर भाग गए थे, बहुतों को अमीर बन्दी बनाकर ले गया था। खम्भात में ऐसा एक भी घर न था जो इस समय श्मशान रूप न हो गया हो। कितने ही घर तो लुट- पिटकर बिलकुल ही बरबाद हो गए थे। आज उनमें दीया जलाने वाला भी कोई नहीं बचा था। बहुतों में से रोने-पीटने तथा हाय-हाय की आवाज़ आ रही थी। किसी का पुत्र, किसी का पति, किसी का भाई, किसी की पत्नी, किसी की पुत्री, किसी की पुत्रवधू महमूद बन्दी बनाकर ले गया था। ऐसा प्रतीत होता था, मानो सारे नगर पर मृत्यु और अवसाद की काली छाया छा गई हो। नगर-सेठ मदन जी महता एक प्रतिष्ठित और करोड़पति व्यापारी थे। उनकी युवती पुत्री कंचनलता को किस प्रकार अमीर के बर्बर सिपाही सेठानी की आँखों के सामने ही उठा ले गए थे, यह पाठकों को ज्ञात है। आज प्रभात ही से लोगों की भीड़ नगर-सेठ की हवेली के सामने एकत्र होने लगी थी। जो लोग नगर छोड़कर भाग गए थे, उनमें बहुत-से लौटे आ रहे थे। नगर में बिजली की भाँति यह खबर फैल गई थी कि नगर-सेठ मदन जी महता अपनी प्रतिष्ठा और कुल-मर्यादा भंग होने से खिन्न हो आज जीवित समाधि ले रहे हैं। जो लोग कभी घर से बाहर न निकलते थे, वे भी आज यह अतर्कित-अकल्पित बात सुनकर सेठ के घर की ओर दौड़े आ रहे थे। ठठ- के-ठठ लोग घर के सामने जुट गए थे। परन्तु सेठ की विशाल अट्टालिका में पूर्ण शान्ति और नीरवता विराज रही थी। आज वहाँ नित्य काम करने वाले दर्जनों मुनीम, गुमाश्ते, सिपाही, नौकर-चाकर और व्यापारियों की चहल-पहल न थी। न आज तराजू पर रुपए और अशर्फियाँ तोली जाकर थैलियों में भरी जा रही थीं। न गुमाश्ते खोटे-खरे रुपए परख रहे थे। इस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो घर में कोई जीवित पुरुष है ही नहीं। सेठ के मकान का द्वार उन्मुक्त था। द्वार पर कोई द्वारपाल या मनुष्य न था। फिर भी उपस्थित जनों में से किसी का साहस भीतर जाने का नहीं होता था। द्वार पर लाल कुंकुम की थाप दी हुई थी। आँगन में एक गहरा गढ़ा खुदा हुआ था। उपस्थित भीड़ में भी सन्नाटा था। सबकी आँखें आँसुओं से तर तथा जिह्वा जड़ थी। किसी को किसी बात की जिज्ञासा न थी। सब कोई सब-कुछ जानते थे। जैसे सबके हाथ किसी दैत्य ने सी दिए हों। जैसे सबको लकवा मार गया हो। प्रत्येक व्यक्ति की आँसुओं से भरी आँखें चौक में खुदे हुए गढ़े पर जमी हुई थीं। प्रतीकार, जिज्ञासा और कौतूहल की भावना जैसे प्रथम ही उस गढ़े में दफना दी गई थी। धीरे-धीरे एक वृद्ध ब्राह्मण को आता देख सब लोग उत्सुकता से उधर ही देखने लगे। ब्राह्मण का सब शरीर उघाड़ा था, उसपर साफ जनेऊ चमक रहा था, कमर में उज्ज्वल धोती थी। उनकी उम्र बहुत थी। आँखें धुंधली हो गई थीं। सिर और मूंछों के बाल रुई के पहल की भाँति सफेद थे। ब्राह्मण का सिर और पैर भी नंगे थे। पैर में जूता और सिर पर