दस मील चलने के बाद लश्कर का पड़ाव पड़ता। तब इन अभागे कैदियों को भी भोजन-विश्राम मिलता। विश्राम को न बिस्तरा, न बिछौना, न छाया। सारी ही सुविधा के स्थान सिपाही घेर लेते-इन भाग्यहीनों को खुली धूप या खुले आकाश के नीचे नंगी ज़मीन पर, कंकड़-पत्थरों पर पड़े रहना पड़ता था। भोजन की दशा बहुत खराब थी। बहुत कम लोगों को भोजन मिलता था। वह भी कदन्न। बहुत से बिना भोजन के रह जाते। जो भोजन मिलता वह अतिनिकृष्ट होता था। यदि पास-पड़ोस में कोई गाँव होता, तो इन कैदियों को रस्सियों से बाँधकर वहाँ सिपाही ले जाते-जहाँ वे गाँव वालों से भीख माँगते। गाँव वाले तो इस दल-बल से डर कर बहुधा भाग जाते थे। कुछ दृढ़ श्रद्धालु, सिपाहियों का भय त्याग अपने आँसुओं से अभिषिक्त अन्न जैसे बनता, इन्हें दे देते थे। कोई-कोई फटा-पुराना वस्त्र देकर अबलाओं की लाज ढकते थे। बहुत कैदी राह में मर जाते। बहुत-सी माताओं की गोद के बालक सिसकते, प्राण त्यागते रह जाते। उन्हें उसी हालत में छोड़कर आगे चल देना पड़ता। चलते-चलते अनेक स्त्रियों को प्रसव-वेदना उठती, प्रसव हो जाता, पर उनके लिए कोई रुकता न था। या तो उस हतभागिनी की वहीं असहाय छोड़ सब चल देते, या वह रस्सियों से बँधी हाय-हाय कर घिसटती हुई गिर पड़ती, और फिर घोड़ों, हाथियों-पदातिकों से रूंधी जाकर वहीं ढेर हो जाती थी। भोजन के बाँटने के समय और भी हृदय-द्रावक दृश्य होता। विपत्ति और प्राणों के भार ने उन सबको मनुष्य से भेड़िया बना दिया था। भोजन बँटने के समय वे हण्टरों और डण्डों की मार की तनिक भी परवा न कर एकबारगी ही टूट पड़ते। सबमें खूब गाली-गलौज और धक्का-मुक्की होती। वे प्रत्येक आपस में खून के प्यासे हो गए थे। पड़ाव पर पहुँचते ही सब कोई अच्छी जगह पर आराम करने को कब्ज़ा करने के लिए झपटते, इस समय भी उनमें लड़ाई होती। इससे भी अधिक दर्दनाक दृश्य यह होता कि वे रोटियों और मुट्ठी भर चावलों पर, जो उन्हें खाने को मिलता था, जुए का दाव लगाते। जो जीतते वे झपट कर साथी का हिस्सा छीन पशु की भाँति बेसब्री से खा जाते। और उनका साथी भूखा-प्यासा टुकुर-टुकुर उनकी ओर देखता रह जाता। शोर, हाहाकार, क्रन्दन और अव्यवस्था का अन्त न था। राह में और पड़ाव में भी बहुत स्त्री-पुरुष कैदी मर जाते थे। उन्हें यों ही छोड़ शेष कैदियों को संग लेकर सिपाही चल देते थे। ऐसा प्रतीत होता था, मानवता पृथ्वी से उठ गई है और सारा संसार नरक की आग में जल रहा है। विशिष्ट कैदियों को सबसे प्रथम ठहराया जाता था। पड़ाव पर पहुँचते ही उनका यह काम होता, कि स्थान को झाड़-बुहार कर साफ करें। फिर उन्हें आगे रवाना कर दिया जाता था। वे बहुधा अपना भोजन रोगियों, स्त्रियों और घायलों को दे देते थे तथा स्वयं अनाहार रह जाते थे। स्त्रियों पर अत्याचार रोकने में वे कभी-कभी जान पर खेल कर सिपाहियों से लड़ पड़ते थे। परन्तु सिपाहियों को दया-माया छू तक नहीं गई थी। मनुष्य के जीवन का उनके लिए कोई मूल्य न था। वे कठोरता और क्रूरता की साक्षात् मूर्ति थे। इस प्रकार ग्यारह दिन कूच करने के बाद जो कैदी जीवित पाटन पहुँचे, उनकी दशा मृतकों से बढ़कर थी। जिस घर को बाँसों और बल्लियों से घेरकर जेल बनाया गया
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