ब्रह्मा की मूर्ति ब्रह्मा के अनेक मन्दिर अब तक विद्यमान हैं। यद्यपि देवों में सबसे कम इस देव की पूजा होती है। ब्रह्मा को सृष्टि का उत्पादक और यज्ञों का प्रवर्तक माना गया है। इसकी मूर्ति चतुर्मुखी है। परन्तु जो मूर्ति दीवार में लगी होती है, उसके तीन ही मुख दिखाए जाते हैं। परिक्रमा वाली में चारों मुख हैं। ऐसी चतुर्मुखी मूर्ति थोड़ी ही मिली हैं। ब्रह्मा के एक हाथ में स्रुवा दीखता है जो यज्ञकर्ता का सूचक है। शिव-पार्वती के विवाह सूचक मूर्ति-समुदाय में ब्रह्मा को पुरोहित का स्थान दिया गया है। परन्तु यह एक विचित्र बात है कि शिव और विष्णु के समान ब्रह्मा का कोई सम्प्रदाय नहीं हैं। कल्पना में ब्रह्मा, विष्णु और शिव एक ही परमात्मा के त्रिस्वरूप माने गए हैं। ऐसी ब्रह्मा की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं जिनके ऊपर के एक किनारे पर शिव और दूसरे पर विष्णु की छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनी हैं। ऐसे ही विष्णु की मूर्तियों पर ब्रह्मा और शिव तथा शिव की मूर्तियों पर ब्रह्मा और विष्णु की छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनी हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि तीनों देवताओं में एकता स्थापित की गई है। भक्तों ने अपनी-अपनी अपनी-अपनी इच्छा से किसी एक की प्रमुखता मानकर उपासना की है। बाद में इन देवताओं की स्त्री सहित मूर्तियाँ बनने लगीं। शिव-पार्वती की मूर्ति के अतिरिक्त शिव की अर्द्धनारीश्वर मूर्तियाँ भी मिलती हैं, जिनमें आधा शरीर शिव का और आधा पार्वती का होता है। ऐसी ही सम्मिलित मूर्तियाँ भी होती हैं। शिव और विष्णु की सम्मिलित मूर्ति के हरिहर तथा तीनों की सम्मिलित मूर्ति को हरिहर-पितामह कहते हैं। त्रिदेव 18 पुराणों में इन्हीं तीन व मुख्य देवताओं के वर्णन हैं। विष्णु, नारदीय, भागवत, गरुड़, पद्म और वाराहपुराण विष्णु से तथा मत्स्य, कूर्म, लिंग वायु, स्कन्ध और अग्निपुराण शिव से-एवं ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त, मार्कण्डेय, भविष्य, वामन और ब्रह्मपुराण ब्रह्मा से सम्बन्धित हैं। शक्ति पूजा इन देवताओं की पत्नियों की भी भिन्न-भिन्न रूपों में पूजा प्रचलित हुई। ब्रह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही और एन्द्री -इन सातों शक्तियों को मातृका कहते हैं। कुछ रुद्र भयंकर शक्तियाँ भी हैं जैसे काली, कराली, कापाली, चामुण्डी और चण्डी। इनका सम्बन्ध कापालिकों और कालमुखों से है। कुछ शक्तियाँ ऐसी भी हैं जो विषय-विलास से सम्बन्धित हैं। जैसे आनन्द भैरवी, त्रिपुर सुन्दरी, ललिता आदि इनके उपासकों का कहना है-शिव और त्रिपुरसुन्दरी के योग से संसार बना है। वर्णमाला के प्रथम अक्षर 'अ' से शिव और अन्तिम अक्षर 'ह' त्रिपुरसुन्दरी का अभिप्राय है। इन दोनों का योग 'अहं' काम-कला का सूचक है। 11 मौलिक और भैरवी चक्र श्यत्तों का मुख्य भैरवी चक्र है, श्यत्तों के दो भेद हैं-1. मौलिक 2. समयिन।
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