पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३९९

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खिड़की में शिव की ताण्डव नृत्य करते हुए, टूटी हुई एक खण्डित मूर्ति है, जिसकी 12 भुजाओं के आधे अवशेष बाकी हैं। नर मुण्डमाल उनकी टाँगों तक लटक रही है। नन्दी, जिसकी सिर्फ दो टाँगें शेष रह गई हैं, उनके दाहिने पाश्र्व में हैं, और शिव के सिर पर का जटा-जूट रस्सी की भाँति लिपटा हुआ है। दीवार के मोड़ पर बाईं ओर को एक और, सम्भवतः शिव की प्रतिमा ही है। इन सबके ऊपर छोटी-छोटी पार्वती-शिव की मूर्तियां हैं, जिनमें शिव पार्वती को अपनी जाँघों पर बैठाए हुए हैं। कोनों में हर ओर दिग्पालों की मूर्तियां बनी हैं। गर्भगृह की छत पर उत्तर-पूर्वी कोण में रामायण के कुछ दृश्य दीख पड़ते । कुछ भाग अत्यन्त सुन्दर और भव्य बने हैं। विशेषकर बाहरी द्वार के दोनों ओर खड़ी हुई मूर्तियों के अवशेष हैं-ये मूर्तियां भीतरी द्वार तक चली गई हैं, परन्तु अब कुछ ही समूची रह गई हैं। दरवाज़ा सम्भवत: पहले के ही समान है। मन्दिर के बाहर जो खण्डित मूर्तियां पड़ी हैं, उनमें सूर्य की दो बड़ी और एक छोटी मूर्ति है, जिसमें सूर्य अपने हाथों में पूरा खिला कमल का फूल लिए हुए हैं। इनमें एक का हाथ टूट गया है। छोटी मूर्तियां बड़ी की अपेक्षा अर्वाचीन प्रतीत होती हैं। सम्भवतः बड़ी मूर्ति सूर्य के प्राचीन मन्दिर की है, जिसे पीछे जामा मस्जिद बना दिया गया था। जैसी सूर्य-मन्दिर की छत है, कोंकण प्रदेश के अम्बरनाथ के प्राचीन मन्दिर की छत पर भी वैसा ही काम है। एक मूर्ति बड़ी दाढ़ी और मूंछों की है, जो सम्भवत: कालभैरव की है। उसकी आठ टूटी भुजाएं हैं जिनमें एक में खड्ग, दूसरी में त्रिशूल, तीसरी में नर-मुंड है। मन्दिर का भीतरी भाग भी मस्जिद बना दिया गया था। इसलिए मुसलमानों ने खम्भों को फिर से खड़ा करके गुम्बद बनाया तथा कुछ सजाया भी। बीच की प्राचीन छत–जो कभी अत्यन्त भव्य रही होगी जैसी मायापुरी मस्जिद है, परन्तु बेकार होने से वह फिर काम में नहीं लाई गई। हॉल तथा मूर्ति का स्थान-जहां सम्भवत: नन्दी था-वहां छत नहीं ढाली गई। यहां के खम्भे सबसे अधिक टूट गए हैं। जो मन्दिर का प्रमुख द्वार था, वह हटा दिया गया था। उसके स्थान पर एक सादा महराबदार दरवाज़ा लगा दिया गया था। प्रदक्षिणा की भीतरी दीवारें भी मूर्तियों से भली-भाँति सजी थीं। यह मार्ग अंधेरा न था, खिड़कियों से प्रकाश आता था, जिनसे सब भव्यता दीख पड़ती थी। भीतरी भाग सिद्धपुर के रुद्र महालय और मुढेरा के सूर्य-मन्दिर ही के समान है। जिस स्थान पर लिंग स्थापित था, वह चौकोर है। मन्दिर का स्थापत्य ग्यारहवीं शताब्दी का है, जबकि मुढेरा, अम्बरनाथ, रुद्र महालय और विमलशाह के मन्दिर तैयार हुए थे। विशेषकर खम्भे वैसे ही हैं, जैसे आबू के तेजपाल के ऋषभदेव के मन्दिर हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि भीमदेव का मन्दिर कुमारपाल के मन्दिर की भाँति प्रशस्त और भव्य नहीं था। इसका कारण शायद यह रहा हो कि वह जल्दी में और लूटमार के तुरन्त बाद बनाया गया था। भारत में मुसलमानों की सफलता के कारण लगभग चार हजार वर्षों तक हिन्दू संस्कृति निरन्तर विकसित होती रही। देश- देशान्तरों में भी उसका प्रचार हुआ। उसका संपर्क दूसरी संस्कृतियों से हुआ, उनका प्रभाव भी उस पर पड़ा, परन्तु उसका अपना रूप बिल्कुल स्थिर ही रहा। विदेशी विजेताओं तक ने