ईदुल-फितर आश्विन मास आधा बीत चुका था। गज़नी में बड़ी भारी रेलपेल थी। मास के प्रारम्भ ही से योद्धाओं के दल-बादल चारों ओर के पहाड़ी प्रदेशों से गज़नी में बढ़े चले आ रहे थे। उनकी आवा-जाही, भरती और चहल-पहल से, नगर में बड़ी भीड़-भाड़ और शोरगुल भर गया था। मुहल्ले और बाज़ार तुर्क सिपाहियों तथा तातार के पहाड़ी डाकुओं से पटे पड़े थे। आसपास के इलाकों में से चुने हुए अनुभवी योद्धा, जिन्होंने लगातार सत्रह बार सुलतान की लगाम के साथ रहकर अपने घोड़ों की टापों से भारत की भूमि तथा वहाँ के आबाल-वृद्ध को रौंद डाला था, बड़े ठाठ और उमंग में बढ़िया पोशाक पहने और ताँबे के सिक्कों के स्थान पर सोना फेंकते हुए अकड़ते फिर रहे थे। पहाड़ों की विकट गुफाओं के सरदार अपनी-अपनी टोलियाँ लिए दनादन गज़नी में चले आ रहे थे। लुटेरों की टोलियाँ आनन्द से बाँसुरी और डफ बजातीं और शौर्यपूर्ण भावों से भरे गीत गातीं, रणमत्त ही स्वच्छन्द गज़नी के बाज़ारों में घूमती-फिरती थीं। बहुत से काबुली लुटेरों और लुच्चों की टोलियाँ गज़नी की गलियों में शाम होते ही घूमने लगती थीं, जिनके साथ भड़कीली ज़नानी पोशाक पहने लड़के, नकली बाल लगाए नाचते-गाते चलते थे। इनके पाजामों पर तो सुनहरी काम था, परन्तु इनके चेहरे पीले और मुझाए हुए थे। गज़नी के सब काफी-घरों और जुए के अड्डों में बदमाशों, गिरहकटों, उठाईगीरों,चोरों और डाकुओं के साथ-साथ इस प्रकार के लड़कों की भी खूब भरमार थी, जिनके साथ सब लोग अत्यन्त निर्लज्जतापूर्ण हंसी-मजाक एवं अश्लील व्यवहार करते थे। अनेक तुर्क और पठान सरदार इन लड़कों के विशेष प्रेमी थे। वे उन लड़कों को ज़नानी पोशाक में सजे-धजे साथ लेकर बाज़ारों में सैर करते थे, जिनसे उनके गन्दे और घृणित सम्बन्ध थे। इसे वे अपनी प्रतिष्ठा और अमीरी का चिह्न समझते थे। इनमें बहुत-से लड़के बचपन में ही हीजड़े बना दिए गए थे, और वे अपनी हालत में खुश थे। वे बड़े चाव से ज़नाने हावभाव करके लोगों को रिझा रहे थे। संध्या होते ही शहर के बाहर की सफील के पास सैकड़ों गुलाम और हीजड़े तथा लड़के खड़े हो जाते थे। और इसके लिए उन्हें गज़नी के सुलतान को टैक्स देना पड़ता था। शहर के सरदारों, अमीरों और उमरावों के महलों में नाच-रंग और तमाशों की भरमार थी। काफी-घरों और नाटकघरों में खचाखच आदमी भरे थे। मस्जिदों, सरायों और बड़े-बड़े मकानों ने फौजी छावनियों का रूप धारण कर लिया था। यह व्यवस्था सुलतान की आज्ञा से हुई थी। लूट के लालच से किसान और बहुत-से आवारागर्द भी वहाँ आ जुटे थे। बड़े-बड़े मुल्ला और वाइज नमाज़ के बाद लोगों को धर्मवाक्य सुना-सुनाकर जेहाद करने के उत्तेजनामूलक भाषण दे रहे थे। इस प्रकार गाजे-बाजे और जयोल्लास में गज़नी शहर डूब रहा था। नगर के बाहर दूर तक तम्बू, घोड़ा, गधा, खच्चर, उँट तथा सैनिकों का एक नया विराट नगर बन गया था।, यह सब सुलतान महमूद की जबरदस्त तैयारियाँ थीं, जो उसके इस बार के आसाधारण अभियान के प्रति उसकी गहरी आसक्ति का परिचय दे रही थीं। इस बार उसने
पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/६८
दिखावट