कठिन अभियान ईद का दरबार करके अमीर ने दूसरे दिन भोर में ही प्रस्थान किया। प्रस्थान के समय उसने सेना के समक्ष एक छोटा-सा सारगर्भित भाषण दिया। यह अभियान अमीर के लिए अब तक के सब अभियानों से अधिक कठिन था। भारत की भूमि पर पैर रखने से प्रथम उसे एक-सौ पचहत्तर गाँवों की विकट मरुभूमि पार करनी थी। इस मरुभूमि में रेत और काली चिकनी मिट्टी को छोड़ दूसरी वस्तु न थी। न घास-फूस, न जल, न वृक्ष, न छाया। प्रतिदिन वादेसम्म के झोंके आते और दिन की रात हो जाती। पर अमीर को इस मरुस्थली का अनुभव था, यद्यपि उसको पार करना एक महासमर विजय करने के समान था। परन्तु अमीर ने अपने पूर्व अनुभव के आधार पर सब आवश्यक साधनों की व्यवस्था कर ली थी। उसने मार्ग में स्थान-स्थान पर सहायता केन्द्र स्थापित कर लिए थे। इस तरह एक साहसिक और व्यवस्थित योद्धा की भाँति वह अभियान पर आगे बढ़ा था। महमूद अपनी सम्पूर्ण सेना का सेनापति था। पर पहाड़ी लुटेरों की टुकड़ियों पर उसने पहाड़ी सरदारों को ही अधिकार दे रखा था। गज़नी की राजसत्ता अहमद ममैदी को सौंप और पाटवीपुत्र को साथ ले, दलबल सहित वह खूब सतर्कता और सावधानी से अग्रसर हुआ था। कूच का वह दृश्य भी अद्भुत था। उस दिन सब नगर-बाज़ार बन्द थे। लोग बड़ी भावभरी आँखों से इस विजेता का यह अभियान देख रहे थे। आतुर माताएँ आँखों में आँसू और आँचल में आशीर्वाद भरे, पुत्रों को अज्ञात देश की ओर जाते देखने खड़ी थीं। कुल-वधुएं गोद में अबोध शिशुओं को लिए और धड़कते हृदयों को हाथ से दबाए, प्रिय पति को यों जाते देख रही थीं। मस्जिदों में मुल्ला उच्च स्वर से दुआ पढ़ रहे थे। कटक का विस्तार बहुत था। पचपन हज़ार मर-मिटने वाले तुर्क सवार नंगी तलवारें चमचमाते, पिघले हुए लोहे की नदी की भाँति बढ़े चले जा रहे थे। दस हज़ार मर- मिटने वाले ममलुक योद्धा कीमती अरबी घोड़ों पर सवार एक जीवित दुर्ग बनकर चल रहे थे। इसके बाद बुखारे के बीस हज़ार ऊँटों पर चालीस हज़ार सधे हुए तीरन्दाज़ थे। डेरा तम्बू वाले मार्ग-दर्शक, मार्ग-संशोधक, तेली, तम्बोली, बावर्ची, साईस, मल्लाह, दुकानदार, वेश्याएं, लौंडे, दरवेश, मुल्ला, साईं आदि की गिनती न थी। मंज़िल पर मंजिल मारता अमीर का यह कटक डेरा इस्माईल खाँ के उस ओर के पहाड़ों की तलहटी में आ पहुँचा। ये पहाड़ियाँ अति विकट, दुर्गम और निर्जन थीं। उनके वह शिखर बारहों मास बर्फ से ढके रहते थे। ग्रीष्मकाल में जब बर्फ पिघलता तो दर्रे को चीरता हुआ और वहां के यात्रियों को अपने में लपेटता हुआ चला जाता था। शीतकाल में वहाँ इतनी ठंड पड़ती थी कि मनुष्य के शरीर का रक्त ही जम जाता था। परन्तु महमूद के अनुभवी मस्तिष्क के कारण उसकी सेना का बहुत कुछ, इस कष्ट से बचाव हो गया। इसके दो कारण थे, एक तो अभी वर्षा ऋतु समाप्त ही हुई थी और शीतकाल नहीं आया था। कड़ी ठण्ड नहीं पड़ी थी। बर्फ जमने से पहले ही उसकी सेना ने घाटी पार कर ली थी। दूसरे उसकी सेना के सभी योद्धा उस शीत, बर्फ और कठिनाई के अभ्यस्त थे। उनके लिए वह कुछ
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