जाने का संकेत किया। अब पिता-पुत्र का साहस एक शब्द भी कहने को न हुआ। दोनों ने भूमि में गिरकर घोघाबापा के चरणों में माथा टेका और चल दिए। बापा ने अब नन्दिदत्त को बुलाया। उनके आने पर दोनों हाथ फैलाकर कहा, “गुरुदेव, अब आप हैं और मैं हूँ, बस इतने में ही समझ जाइए। गढ़ गढ़वी का, अमीर मेरा और अन्त:पुर आपका। परन्तु अभी हमें बहुत समय है। अमीर को यहाँ पहुँचते एक पखवाड़ा तो लग ही जाएगा। इस बीच में हम चाकचौबन्द हो रहेंगे। परन्तु आपको एक कार्य करना होगा। आपको इसी क्षण सपादलक्ष जाकर धर्मगजदेव को सावधान करना होगा। समय विपरीत है, कहीं ऐसा न हो, उसकी बुद्धि भी भीम पाल और अजय की भाँति मार्ग-भ्रष्ट हो जाए। इसी से और किसी को न भेजकर, आप ही को भेजता हूँ। देखना, चौहानों के मुंह में अब और कालिख न लगने पाए। फिर आपको अमीर से पहले ही लौट आना है। अन्त:पुर आपका है, यह न भूलना। और बात मैं आपके आने पर कहूँगा।" वृद्ध नन्दिदत्त कुछ देर खड़े कुछ सोचते रहे। इसके बाद एक पुष्प वृद्ध राजा की पगड़ी पर रख, दोनों हाथ उठाकर उन्होंने आशीर्वाद दिया और एक क्षण भी न खोकर, एक शब्द भी न कहकर एक बारगी ही चल दिए।
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