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सौ अजान और एक सुजान


तो एक उदाहरण हो गए हैं। कहावत प्रचलित है--"नैन चैन की चंद्रिका रही जगत् में छाय" इत्यादि। अपव्यय या फिजूलखर्ची से इसे चिढ़ थी। कहा भी है—

इदमेव हि पाण्डित्यमियमेव विदग्धता;
अयमेव परो धर्मो यदायान्नाधिको व्ययः।
*

ऊपरी दिखाव और चटक-मटक से इसे अत्यंत घिन थी, जाहिरदारी को यह दिल से नापसंद करता था। जिस किसी को आमद से जियादह खर्च करते देखता, उसे यह निरा बेईमान और दिवालिया मानता था, और न कभी ऐसों का अपने किसी काम में विश्वास करता था।

इससे यह मत समझो कि यह महाटंच, वज्र सूम था। काम पड़ने पर यह बेदरेग़ लाखों लुटा देता था, और बेजा एक पैसा भी उठ गया हो, तो उसके लिये दिन-भर पछताता था। जैसा कहा है—

यः काकिणीमप्यपथप्रपन्नां समुद्धरेन्निष्कसहस्रतुल्याम्;
कालेषु कोटिष्वपि मुक्रहस्तस्तं राजर्सिहं न जहाति लक्ष्मीः।

दिन-रात सदा एक ही काम में लगे रहना इसे बहुत बुरा लगता था। सबेरे से साँझ तक खाली तेल और पानी से देह


* यही पंडिताई है, यही चतुराई है, यही परम धर्म है कि आमद से ज़्यादा खर्च न हो।

† जो कुराह में जाती हुई एक कौड़ी की बचत को भी हज़ार मुद्रा-समान समझता है, और उचित समय पर करोड़ों खर्च कर डालता है, उस राजसिंह को लक्ष्मी नही त्यागती।