इनको कुछ सोच न था, उन विद्यार्थियों ही को अपना पुत्र मानते थे। वरन् पुत्र से अधिक प्रेम उनमें इनका था। उन सबों में दूर-देश का एक विद्यार्थी आकर थोड़े दिनों से यहाँ पढ़ने लगा था। यह किस नगर या ग्राम का रहनेवाला था, यह कुछ मालूम नहीं; पर बोली इसकी कुछ-कुछ मारवाड़ियों की-सी थी। जो हो, इसके शील-स्वभाव और बुद्धि की तीक्ष्णता से पंडितजी इस पर यहाँ तक रीझ गए कि इसे अपना पट्टशिष्य मानने लगे। और सब बातों में पंडितजी की अनुहार तो इसमें थी ही, किंतु बोलने में पटु और बर्बर होना, यह एक बात इसमें विशेष पाई गई। पंडितजी अध्यापक बहुत अच्छे थे; किंतु अत्यंत शांतशील होने के कारण शास्त्रार्थ करने में उतने प्रवीण न थे। इसमें दोनो बातें होने से गुरुजी भी इसका विशेष आदर करने लगे। सेठ हीराचंद जब पंडितजी के दर्शनों को आते थे, तो उसका वाक्पाटव और पैनी बुद्धि की तेजी देख प्रसन्न हो जाते थे, और इसके ये गुण हीराचंद के मन में जगह पाते गए। नाम इसका चंद्रशेखर था; किंतु पंडितजी का यह अत्यंत कृपापात्र था, इससे यह इसे चंदू कहते थे। सेठ अपने बालकों के लिये ऐसा एक आदमी खोज रहा था, जो उन्हें पढ़ावे तो थोड़ा, पर इधर-उधर की चतुराई की बातें उन्हें सुनावे बहुत। चंदू में यह गुण देख उसी को सेठ ने अपने दोनो पौत्रों के पढ़ाने के लिये नियत कर दिया।
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सौ अजान और एक सुजान