सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३७
सातवाॅ प्रस्ताव



जिससे हम इसे कोई पुराना तीर्थ कह सकें। इस मठ का कुल हलका पौन कोस के गिर्द में था। चारों ओर से लहलहे, सघन वृक्षों की शीतल छाया और ठौर-ठौर लताओं से छाए हुए कुंजों को रमणीयता मन को हरे लेती थी । ग्रीष्म का सताप और जाडे की कपकपी कभी वहाँ नाम को भी न व्यापती थी । बरसात के पानी का एक अच्छा लहरा घने वृक्षों की छाया में एक साधारण-सी बूंदाबांदी मालूम होती थी । बोध होता है, मानो ये सब विटप और लताएँ वर्षा, वात, शीत, आतप के निवारक इस मठ के लिये एक क़ुदरती छाता बन गए हैं । हम ऊपर लिख आए हैं कि वहाँ कोई देव-मंदिर या किसी देवता की प्रतिमा स्थापित न थी, जिससे तीर्थ होने का कोई चिह्न -वहाँ प्रकट होता हो ; किंतु तपोभूमि-सदृश उस स्थान का माहात्म्य ऐसा देखा जाता था कि वहाँ पहुंचते ही मन में सतोगुण का भाव आप-से-आप उदय हो आता था । मन कैसा ही उदासीन और मलीन हो, वहाँ जाने से प्रसन्न और प्रफुल्लित हो उठता था । इस आश्रम का मुख्य स्थान कई एक पुराने- पुराने वट वृक्षों के बीच एक मढ़ी-सी थी, जिसके भीतर गज-भर का लंबा-चौड़ा और आधा गज ऊँचा एक पक्का चबूतरा-सा बना था । यात्री या जियारत करनेवाले उसी चबूतरे की पान, फूल, मिठाई इत्यादि से पूजा करते थे। दस-बीस कोस के गिर्द में यह स्थान ऐसा प्रसिद्ध था कि