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सौ अजान और एक सुजान

लगा ही है, किसी तरह इस मरदूद को भी बाबुओं की भाँति अपने चंगुल में फंसा ले। तब क्या, हमी हम देख पड़े, और अवध में बड़े-से-बड़े नवाबों से मेरा रुतबा और ठाठ कुछ कम न रहे। बस, यही हुमा बेगम इसके लिये भी काफी होगी। इसी नियत से यह अक्सर किसी-न-किसी बहाने लखनऊ में महीनों आकर टिका रहता था, और मुसिफ साहब से रफ्त-जप्त भी खूब पैदा कर ली थी। यहाँ अपनी गैरहाजिरी में हकीम साहब से खूब ताकीद कर दिया था कि वह बाबुओं के रहन- सहन और चाल-चलन को अच्छी तरह, चौकसी के साथ, देखते रहें, क्योंकि उसे, यह डर बनी ही रही कि कहीं ऐसा न हो कि चंदू फिर कोई उपाय बाबुओं को ढंग पर लाने का कर गुजरे और उसका जमा-जमाया सब खेल उचट जाय। इस बीच यहाँ हकीम साहब से बड़े बाबू साहब की वेहद घिष्ट-पिष्ट बढ़ गई, दिन-दिन-भर रात-रात-भर बाबू गायब रहते थे। बाबू, हकीम और नंदू, ये तीनो हुमा के ऐसे भक्त हो गए कि रातोदिन उसकी उपासना मे लगे रहा करते थे। पर इसमें मुख्य उपासना बाबू ही की थी, क्योंकि वे दोनो तो मानो भारे के टट्टू-से थे, उपासनाकांड का पूरा दारमदार केवल बाबू ही पर आ लगा था। उधर छोटे बाबू की एक निराली ही गुट्ट कायम हो गई और दोनो मिलकर आवारगी में औवल दरजे की सार्टीफिकेट के बड़े उत्साही कैंडिडेट हो गए। हम ऊपर कह आए हैं, बड़े बाबू को चिट्ठी-पत्रियों