हालत कुछ सुधरने लगी। दो-तीन दिन तो पड़ा रहा, उपरांत बोला भी और कुछ खाने के लिये इसने इच्छा प्रकट की। बाबू इसे चंगा होते देख मन में बड़े उदास हुए, सब उम्मीदें जाती रहीं, और जो बात सोच रक्खी थी एक भी न हो सकी ; पर ऊपर से ऐसी लल्लो-पत्तो और चुना-चुनी करते जाते थे कि धनदास को किसी तरह पर यह विश्वास न हुआ कि यह मेरा अनिष्ट सोच रहा है, और मेरे साथ कुछ खेल खेला चाहता है। इसके बाद भी अपनी दुरभिसंधि छिपाने को बाबू दो-एक दिन वहाँ रहकर धनदास से बिदा हुए, और नंदू को वहाँ ही छोड़ गए। भीतर-भीतर इशारा तो कुछ और ही था, पर ऊपर से धनदास के सामने नंदू से कहा– "नंदू बावू. मैं तो अब जाऊँगा, पर तुम चचा साहब की अच्छी तरह फिकर रखना। देखो, इन्हें किसी तरह की तकलीफ न हो। इनके पथ्य और इलाज इत्यादि की तद- वीर रखना।" और धनदास से बोला-'चाचा साहब, क्या करूँ, मै बड़ा लाचार हूँ। मेरे न रहने से कोठी तथा इलाकों का सब कारबार बंद होगा । मै नंदू बाबू को छोड़े जाता हूँ, यह मेरे बड़े रफीक हैं, आपकी सेवा-टहल की सब फिकिर रक्खेगे, और किसी तरह की तकलीफ आपको न होने पावेगी । मै घुड़सवार एक हलकारे को छोड़े जाता हूँ, जब आपको किसी बात की जरूरत आ पड़े, तुरंत इसे भेज मुझे इत्तिला देना।" यह कह बुड्ढे को सलाम कर यह वहाँ से बिदा हुआ।
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