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चतुर्थ अंक
 

मालिनी-- (मातृगुप्त के पैरों पर गिरती हुई) एक बार क्षमा कर दो मातृगुप्त!

मातृगुप्त-- मैं इतना दृढ़ नहीं हूँ मालिनी! कि तुम्हें इस अपराध के कारण भूल जाऊँ। पर वह स्मृति दूसरे प्रकार की होगी। इसमें ज्वाला न होगी। धुंआ उठेगा और तुम्हारी मूर्ति धुंधली होकर सामने आवेगी! जाओ!

(मालिनी का प्रस्थान, चर का प्रवेश)

चर-- कुमारामात्य की जय हो!

मातृगुप्त-- क्या समाचार है? सम्राट् का पता लगा?

चर-- नहीं। पंचनद हूणों के अधिकार में है, और वे काश्मीर पर भी आक्रमण किया चाहते है।

मातृ॰—- जाओ!

(चर का प्रस्थान)

मातृ०–- तो सब गया! मेरी, कल्पना के सुंदर स्वप्नों का प्रभात हो रहा है। नाचती हुई निहार-कणिकाओं पर तीखी। किरणों के भाले! ओह! सोचा था कि देवता जागेंगे, एक बार आर्यावर्त्त में गौरव का सूर्य्य चमकेगा, और पुण्यकर्मों से समस्त पाप-पंक धो जायेंगे; हिमालय से निकली हुई सप्तसिंधु तथा गंगा-यमुना की घाटियाँ, किसी आर्यें सद् गृहस्थ के स्वच्छ और पवित्र आँगन-सी, भूखी जाति के निर्वासित प्राणियों को अन्नदान देकर संतुष्ट करेंगी; और आर्य्यजाति अपने दृढ़ सबल हाथो में शस्त्र-ग्रहण करके पुण्य का पुरस्कार और पाप का तिरस्कार, करती हुई, अचल हिमाचल की भाँति सिर ऊँचा किये, विश्व को

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