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स्कंदगुप्त
 


पृथ्वीसेन--ठहरो भटार्क! तुम्हारी विजय हुई, परन्तु एक बात......

पुरगुप्त--आधी बात भी नहीं, बन्दी करो।

पृथ्वीसेन--कुमार! तुम्हारे दुर्बल और अत्याचारी हाथों में गुप्त-साम्राज्य का राजदंड टिकेगा नहीं। संभवतः तुम साम्राज्य पर विपत्ति का आवाहन करोगे। इसलिये कुमार! इससे विरत हो जाओ।

पुरगुप्त--महाबलाधिकृत! क्यों विलम्ब करते हो?

भटार्क--आप लोग शस्त्र रखकर आज्ञा मानिये।

महाप्रतिहार--आततायी! यह स्वर्गीय आर्य्य चन्द्रगुप्त का दिया हुआ खड्ग तेरी आज्ञा से नहीं रक्खा जा सकता। उठा अपना शस्त्र, और अपनी रक्षा कर!

पृथ्वीसेन--महाप्रतिहार! सावधान! क्या करते हो? यह अन्तर्विद्रोह का समय नहीं है। पश्चिम और उत्तर से काली घटाएँ उमड़ रही हैं, यह समय बल-नाश करने का नहीं है। आओ, हम लोग गुप्त-साम्राज्य के विधान के अनुसार चरम प्रतिकार करें। बलिदान देना होगा। परन्तु भटार्क! जिसे तुम खेल समझकर हाथ में ले रहे हो, उस काल-भुजङ्गी राष्ट्रनीति की--प्राण देकर भी--रक्षा करना। एक नहीं, सौ स्कंदगुप्त उसपर न्योछावर है। आर्य्य-साम्राज्य की जय हो! (छुरा मारकर गिरता है, महाप्रतिहार और दंडनायक भी वैसा ही करते हैं।)

पुरगुप्त--पाखंड स्वयं विदा हो गये-अच्छा ही हुआ।

भटार्क--परन्तु भूल हुई। ऐसे स्वामिभक्त सेवक!

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