मानना-ऐसे भ्रम के वश होना-संसार की घटनाओं और मनुष्य-स्वभाव के सच्चे स्वरूप के विषय में अन्यथा ज्ञान रखने के समान है। सत्ता भोगने वाला जैसा ही कमज़ोर ही और बलवान् उसे अपने पर सत्ता भोगने दे, यह जितना कम सम्भव है, उतनी ही क़ायदे की दी हुई सत्ता उसे अधिक बहुमूल्य मालूम होती है, और उसे वह अधिक सम्मान देता है; बल्कि "मैं नियमानुसार सत्ता को भोग सकता हूँ" इस मीठे और प्रिय सिद्धान्त को सतेज रखने के लिए, उस अधिकार को क़ायदे के अनुसार जहाँ तक फैला सके, तथा (उस के ही समान लोगों का प्रचलित) लोकाचार उसे जिस सीमा तक वह अधिकार फैलाने दे-उस हद तक वह उसे बढ़ाता है और इस प्रकार सत्ता भोगने में आनन्द मनाता है। इस से विशेष इस प्रकार का व्यवहार भी हमारे देखने में आता है कि नीच श्रेणी वाले मनुष्यों में जो पुरुष अत्यन्त जङ्गली और पशुवृत्ति वाले होते हैं, तथा जिन्हें प्रारम्भ ही से नैतिक शिक्षा नहीं मिलती, उन में क़ायदे के अनुसार स्त्री की ग़ुलामी, और अन्य चीज़ों या जानवरों के समान उन पर अधिकार करने का हक़ क़ानून के द्वारा खुला होने के कारण उन्हें यह मालूम होता है कि,-"अपनी विवाहित स्त्री तो एक तुच्छ से तुच्छ पदार्थ के समान है, इसलिए उसे प्रत्येक व्यवहार में धिक्कार देते हुए और तुच्छता से ही बरतना चाहिए।" वे अपनी स्त्री को जितने धिक्कार-योग्य बर्ताव
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