छोड़ कर संसार के मनुष्यों से कोई वास्ता नहीं। उन्हें सम्पूर्ण संसार की भलाई सोचने—बड़े-बड़े परोपकार के रहस्य समझने की शिक्षा ही नहीं दी जाती—उस विशाल शिक्षा के मूल तत्वों का उन्हें अभ्यास ही नहीं कराया जाता। इसलिए इस विषय में स्त्रियों को, जो दोष दिया जाता है उसका सीधा अर्थ यह होता है कि, कर्त्तव्य के विषय में स्त्रियों की जैसी समझ बना डाली जाती है—अर्थात् एक पुरुष के प्रति अपना कर्त्तव्य पूरा करने की स्वाधीनता जैसी समाज से उन्हें मिलती है, उसे वे पवित्रता-पूर्वक पूर्ण करती हैं।
२७-जिनके हाथ में अधिकार या सत्ता होती है और जब उन्हें यह विश्वास हो जाता है कि हमारे नीचे दबे हुए अनधिकारियों को यदि अब हक़ न देंगे तो वे सामना करके या लड़-झगड़ कर हक़ लिए बिना न मानेंगे,-उस ही समय वे उनके माँगने के अनुसार हक़ देते हैं। राज़ी-ख़ुशी से अधिकार देना कोई पसन्द ही नहीं करता। यह संसार के अनुभव की बात है। इसलिए अपनी पराधीनता के ख़िलाफ़ स्त्रियाँ जब तक घोर आन्दोलन न करेंगी तब तक इस पराधीनता के विरुद्ध चाहे जैसी ज़ोरदार दलीलें पेश की जायँ, पर उनका असर कुछ नहीं होगा। तब तक पुरुषों की ओर से यही कहा जायगा कि, अपनी हालत के बारे में स्वयं स्त्रियाँ जब कुछ नहीं कहना चाहतीं—तो यही सिद्ध है कि वे अपनी मौजूदा हालत को पसन्द करती हैं। स्त्रियाँ अपनी पराधीनता के