जाता है, तब नास्तिपक्ष का प्रमाण माँगने से पहले अस्तिपक्ष से प्रमाण माँगा जाता है यानी उस घटना के होने के सुबूत पहले देने पड़ते हैं, यदि सुबूत ज़ोरदार नहीं है तो दूसरे पक्ष से उसके विरुद्ध साबित करने को नहीं कहा जाता। इसी प्रकार साधारण मानवी व्यावहारिकता में स्वतंत्रता के विरुद्ध जो बोलता है, या जो मनुष्यों की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार का अंकुश रखवाना चाहता है, उसके ही सिर अपनी बात को सिद्ध करने का बोझ समझा जाता है। यदि एक मनुष्य यह कहता हो कि फलाने वर्ग के मनुष्यों के अधिकार इतने न होने चाहिएँ और उसके बदले में दूसरे वर्ग वालों के अधिकार अधिक होने चाहिएँ,-तो लोग उसका कर्त्तव्य समझते हैं कि वह उस वर्ग को उन अधिकारों के अयोग्य सिद्ध करे-वह भली भाँति साबित कर दे कि वह वर्ग उन अधिकारों को भोगने योग्य नहीं है। सबसे पहले दर्शन शास्त्र से यह सूत्र निकला है कि मनुष्य मात्र को पूरी स्वाधीनता होनी चाहिए और किसी का पक्ष न होना चाहिये। फिर व्यक्ति की स्वाधीनता के विषय में यह नियम सब कहीं स्वीकार किया गया कि मनुष्य-समाज के कल्याण में जिन बातों से बाधा न हो उन सब में व्यक्ति पूरा स्वाधीन है। इस ही प्रकार यह सिद्धान्त भी सर्वमान्य हो गया कि न्याय की दृष्टि में सब मनुष्य समान होने चाहिएँ-यानी न किसी का पक्षपात
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