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स्वदेश–

खोदकर देख लो कि मनुष्य-सभ्यता की दीवार में कहाँ कहाँ हम लोगों के हाथों का चिह्न है। हम लोग तबतक इसीतरह एक झपकी और ले लें।"

इसी तरह हम लोगों में से कोई कोई आधे अचेत जड़मूढ, दाम्भिक भाव से, जराजरा खुली नींद-भरी आँखों से, आलस्य-पूर्ण अस्पष्ट रुष्ट हुंकार से, जगत् में जो दिनका प्रकाश फैला हुआ है उसका अनादर या उपेक्षा कर रहे हैं; और कोई कोई, गहरी आत्मग्लानि के साथ अपनी ढीली रगों के चेष्टाहीन उद्यम––उत्साह को बारम्बार पीटकर जगाने की चेष्टा कर रहे हैं। और जो लोग जाग्रत् अवस्था में स्वप्न देखने वाले हैं––जो लोग कर्म और विचार के बीच में अस्थिर चित्त से डगमगा रहे हैं––जो लोग पुराने की जीर्णता देख पाते हैं और नवीन की असम्पूर्णताका भी अनुभव करते हैं, वे अभागे बारंबार सिर हिला-हिला कर कहते हैं:––

"हे नये आदमियो! तुमने जो नई काररवाई शुरू कर दी है उसकी समाप्ति तो अभीतक नहीं हुई; उसमें क्या सच है और क्या झूठ-इसका फैसला तो अभीतक नहीं हुआ; मनुष्य के भाग्य की चिर-काल से चली आती हुई समस्याओं में से तो किसी एककी भी मीमांसा नहीं हुई। फिर हम अभी तुम्हारे अनुयायी कैसे बनें?

"तुमने बहुत कुछ जाना और बहुत कुछ पाया है, किन्तु यह तो बताओ कि कुछ सुख भी पाया है? हम जिस विश्व-ब्रह्माण्ड को 'माया' माने बैठे हैं उसीको तुम निश्चित सत्य मान कर काम में जान दे रहे हो; तुम क्या हमसे अधिक सुखी हुए हो? तुम जो नित्य नई नई आवश्यकताओं का आविष्कार करके गरीबों की गरीबी दिन-दिन बढ़ा रहे हो, अपने को घर के स्वास्थ्यजनक आश्रय से विश्राम-शून्य कर्म की उत्तेजना में घसीटे लिये जा रहे हो, कर्म को ही सारे जीवन का कर्तां