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स्वदेश–

स्वार्थ के प्रचण्ड वेग को इस प्रकार के दो-एक आदमी उँगली उठाकर कैसे रोक सकते हैं? व्यापारी जहाज की 'पाल' में उनचासों पवन लग रहे हैं। यूरोप के मैदान में उन्मत्त दर्शकों के बीच कतार बाँधे जंगी घोडो की दौड़ हो रही है। इस समय घड़ी भर के लिए कौन ठहरेगा?

हमारे मन में भी यह कल्पना उठती है कि इस उन्मत्त-भाव में–– इस प्रकार जी-जान से अपनी शक्ति को एकदम उन्मुक्त कर देने में आध्यात्मिक भाव का जन्म हो सकता है। इस वेग का आकर्षण अत्यन्त अधिक है। वह हम लोगों को लुभाता है। हम लोगों को यह सन्देह ही नहीं होता कि यह वेग प्रलय की ओर भी जा सकता है।

यह वेग या जोश किस प्रकार का है? यह उसी तरह का है जैसे गेरुए कपड़े पहने हुए फकीरों का एक दल, जो अपने को साधु और साधक बतलाता है, गाँजे के नशे को आध्यात्मिक आनन्द-लाभ की साधना समझता है। यह सच है कि नशे से एकाग्रता और उत्तेजना भी होती है, किन्तु उससे आध्यात्मिक आनन्द-लाभ कैसा, उलटे आध्यात्मिक स्वाधीन सब लता की मात्रा घटती जाती है। और सब कुछ छोड़ा जा सकता है; मगर यह नशे की उत्तेजना नहीं छोड़ी जा सकती। धीरे धीरे मन का स्वाभाविक बल जितना घटता जाता है उतना ही नशे की मात्रा बढ़ानी पड़ती है। हिलडुलकर, नाचकर, या जोर से बाजा बजाकर अपने को बदहवास और मूच्छित सा बनाकर जिस धर्मोन्माद का सुख भोगा जाता है वह भी बनावटी है।उसका अभ्यास बढ़जाने पर, वह, अफीम के नशे की तरह, थकावट के समय केवल एक प्रकार की ताड़ना किया करता है। यह बात सर्वथा सत्य है कि आत्मगत एकनिष्ठ साधना के बिना यथार्थ स्थायी और कीमती