पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/१११

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स्वाधीनता।

यहां कोई यह आक्षेप कर सकता है कि यह तुम कह क्या रहे हो। किसी बात का सच्चा ज्ञान होने के लिए क्या मतैक्य के अभाव की जरूरत है? क्या जब तक उसके विषय में मतभेद न हो तब तक उसके सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता? समाज में कुछ आदमी जब तब हठपूर्वक विरोधी दल में न शामिल होंगे; जब तक वे झूठे पक्ष का साथ न देंगे; तब तक क्या सच बात समझ ही में न आवेगी? यदि कोई सिद्धान्त या मत सब की राय से मान लिया गया तो क्या उसका सर्वसम्मत होना ही उसकी सत्यता और उपयोगिता के नाश का कारण हुआ? किसी मत या सिद्धान्त के विषय में बिना किसी सन्देह के बाकी रहे क्या वह पूरे तौर पर समझ में नहीं आ सकता? ज्यों ही सब समाज या सब आदमी किसी सिद्धान्त को सच मानते हैं त्यों ही क्या उसकी सत्यता उनके मन में नष्ट हो जाती है। आज तक लोगों की समझ में बुद्धि की उन्नति का सब से प्रधान उद्देश यही रहा है कि जितनी बड़ी बड़ी बातें और बड़े बड़े सिद्धान्त हैं उन सब के विषय में मनुष्य-मात्र को अधिकाधिक एकमत होना चाहिए। तो क्या उस मतलव के निकल जाने ही तक लोगों की समझ वैसी रहती है? फिर वह कहां चली जाती है? जीत पूरी होने ही से क्या जीत के फलों का नाश होजाता है?

मैं यह नहीं कहता। मेरा यह हरगिज मतलब नहीं। मनुष्यजाति की जैसे जैसे उन्नति होती जाती है वैसे वैसे ही जिन बातों या सिद्धान्तों के विषय में कोई सन्देह अथवा तक बाकी नहीं रहता उनकी संख्या भी बढ़ती जाती संख्या और योग्यता जैसे जैसे बढ़ती है वैसे ही वैसे मनुष्य-जाति के सुख की भी वृद्धि होती जाती है। विशेष सन्देह-जनक और वादग्रस्त बातों पर धीरे धीरे विवाद बन्द होने ही से उनको मजबूती आती है। तभी वे सर्वसम्मत होकर दृढ़ होती हैं। मुठ या भ्रान्ति-मूलक मत के दृढ़ होजाने से अनर्थ होने की जितनी सम्भावना रहती है, सच्चे और भ्रान्ति रहित मत के दृढ़ होजाने से हित होने की भी उतनी ही सम्भावना रहती है। यद्यपि दोनों तरह के विरोधी मतोंकी हद का घट जाना बहुत जरूरी है-अर्थात यद्यपि इस प्रकारके विरोध का क्रम क्रम से लोप होजाना ही अच्छा है तथापि यह सप्रमाण नहीं कहा जासकता कि ऐसे विरोध के घट जाने या