पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/१३४

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तीसरा अध्याय।
व्यक्तिविशेषता भी सुख का एक साधन है।

अपना अपना मत स्थिर करने के लिए—अपनी अपनी राय कायम करने के लिए सब आदामियों को स्वतन्त्रता का मिलना बहुत जरूरी है। हर आदमी को इस बात की आजादी मिलना चाहिए कि जो राय उसे पसन्द हो—जो मत उसे अच्छा लगे—उसे ही वह कबूल करे। इतना ही नहीं, किन्तु उसे अपने मत को बिना किसी अटकाव के स्वतन्त्रतापूर्वक प्रकट करने की भी आजादी मिलनी चाहिए। क्यों? इसके कारण दूसरे अध्याय में बयान किये जा चुके हैं। इस तरह की आजादी यदि नहीं मिलती; अथवा मना किए जाने पर भी मनाई की परवा न करके यदि लोग स्वतन्त्रतापूर्वक अपने मत प्रकट नहीं करते; तो नतीजा बहुत ही बुरा होता है। कहां तक बुरा? यह भी ऊपर बतलाया जा चुका है। इस विषय में लोगों की स्वतंत्रता छिन जाने से उनकी बुद्धि और विचार-शक्ति ही नहीं कुण्ठित हो जाती है; इससे उनके सदाचरण को भी धक्का लगता है। अब मैं इस बात का विचार करना चाहता हूं कि जिसका जो मत हो उसके अनुसार काम करने की भी उसे स्वतन्त्रता होनी चाहिए या नहीं। और जिन कारणों से उसे अपना मत प्रकट करने की स्वतन्त्रता का मिलना जरूरी है वही कारण यहां भी काम दे सकते हैं या नहीं। हर आदमी को अपने मत के अनुसार काम करने की स्वतन्त्रता से मेरा मतलब यह है कि दूसरे लोग उसे किसी तरह का, शारीरिक या मानसिक, प्रतिबन्ध न पहुंचावें; और अपना मनमाना काम करने में यदि वह किसी विपदा में पड़जाय तो उससे उसीकी हानि हो औरों की नहीं। यह पिछली, अर्थात् विपदावाली, शर्त