चौथा अध्याय।
व्यक्ति पर समाज के अधिकार की सीमा।
अच्छा, तो अपने ऊपर हर आदमीकी—हर व्यक्तिकी—हुकूमत की उचित हद कौनसी है? समाज की हुकूमत शुरू किस जगह होती है? आदमी के जीवन का कितना हिस्सा समाज को देना चाहिए और कितना अलग अलग हर आदमी को? इसका उत्तर यह है कि जिस हिस्से का समाज से अधिक सम्बन्ध है वह समाज को और जिसका व्यक्तिसे अधिक सम्बन्ध है वह व्यक्ति को यदि मिले तो बांट ठीक हो; तो जो जितने का हकदार है उसे उतना मिल जाय। हर आदमी के कब्जे में जीवन का वह हिस्सा रहना चाहिए जिसके हानि-लाभ का वही बहुत करके जिम्मेदार है। और समाज के कब्जे में भी वही हिस्सा रहना चाहिए जो बहुत करके उसी के हित या धनहित से सम्बन्ध रखता है, अर्थात् जिसकी जिम्मेदारी समाज ही के उपर रहती है।
समाज की स्थापना होने के पहले यद्यपि सब आदमियों ने कोई इकरारनामा नहीं लिखा; या सब आदमियों ने किसी दस्तावेज की रजिस्टरी नहीं कराई; और यद्यपि सामाजिक कर्तव्यों का निश्चय करने के इरादे से लिखे गये दस्तावेज से कोई लाभ होता भी नहीं है; तथापि हर आदमी का यह धर्म्म है कि वह समाज के साथ अच्छा बर्ताव करे, क्योंकि समाज उसकी रक्षा करता है। इस रक्षा का बदला अच्छे बर्ताव के रूप में देना हर आदमी का फर्ज है, धर्म्म है, कर्तव्य कर्म्म है। समाज में रह कर व्यक्ति लिए यह निहायत जरूरी बात है कि वह औरों के साथ उचित व्यवहार करे, अर्थात् व्यवहार की जो मर्य्यादा बाँध दी