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स्वाधीनता ।

के, मनोविकारों में जितनी समता होती है उतनी ही समता इस तरह के मनोविकारों में भी होती है। जैसे लोग अपने रुपये पैसे की थैली, या अपनी राय, को कीमती समझते हैं वैसे ही वे अपनी रुचि को भी कीमती समझते हैं। जिस तरह उन्हें अपनी थैली या राय की परवा रहती है उसी तरह उन्हें अपनी रुचि की भी परवा रहती है। यहां पर शायद कोई यह कहे कि निज से सम्बन्ध रखनेवाली जिन बातों के अच्छे या बुरे होनेका निश्चय नहीं हुआ है उन्हें करने के लिए समाज यदि हर आदमी को स्वतंत्रता देदे, और जो बर्ताव या जो आचरण सब लोगों के तजरुबे से बुरे साबित हैं उन्हें करने से यदि वह मना कर दे; तो हानि क्या है ? पर इस, तरह के नमूनेदार उत्तम समाज की कल्पना करना जितना सहज है उतना उसे ढूंढ निकालना या बना लेना सहज नहीं है। आज तक क्या किसीने इस तरह का कोई समाज देखा है जिसने सामाजिक-नियम-सम्बन्धी अपने अधिकार का पूर्वोक्त रीतिसे प्रतिबन्ध किया हो ? यह जाने दीजिए, सब लोगों के तजरुबे की परवा करनेवाले समाज का ही क्या कहीं पता है ? समाज सब लोगों के तजरुबे की परवा करता कर है? आदामयों के निज के काम-काज में दस्तंदाजी करते समय समाज को मालूम होता है कि उसके विरुद्ध वर्ताव करना या जैसा आचरण उसे पसन्द नहीं है वैसा आचरण करना, मानो घोर पाप है। इसके सिवा और कोई विचार समाज के मन में नहीं आता। जितने तत्त्वज्ञानी और जितने नीति- शास्त्र के उपदेशक हैं उनमें से सैकड़ा नब्बे हेर-फेर कर यही बात कहते हैं। इस मत को उन्हों ने तत्त्वविद्या और धर्मशास्त्र की आज्ञा के नाम से सब लोगों के सामने रक्खा है। उनके उपदेश देने की रीति विलक्षण है । यदि उनसे कोई पूछता है कि आप अमुक बात को क्यों अच्छा समझते हैं, तो उसका जवाब वे यह देते हैं कि हम उसे इस लिए अच्छा समझते हैं क्योंकि चह अच्छी है अथवा वह हमें अच्छी मालम होती है। ऐसे लोग हम से कहते हैं कि आचरण-सम्बन्धी नियमों को, जो तुम्हारे भी काम के हों और दूसरों के भी, तुम अपनेही मन से हूंढ़ निकालो; उनका पता तुम अपने ही अन्तःकरण के भीतर लगाओ। इस तरह के उपदेशों के अनुसार जो भली या बुरी बातें समाज को पसन्द आती हैं उन्हींको वह, बहुमत के आधार पर, दुनिया भर के ऊपर लादता है । इसके सिवा वह बेचारा और कर ही क्या सकता है?